Subhadra Kumari Chauhan Poems in Hindi | सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रसिद्ध कविताएँ

महादेवी वर्मा के प्रसिद्ध कविताएँ

Subhadra Kumari Chauhan Poems in Hindi : यहाँ इस लेख में आपको देश के प्रसिद्ध कवियों में से एक कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रसिद्ध कवितायेँ उपलब्ध कराएँगे।

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Table of Contents

झांसी की रानी – सुभद्रा कुमारी चौहान (1)

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़|
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
 रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
 बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार ।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
 हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
 लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
 ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
 पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
 घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

 जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
 तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान (2)

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
 गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
 चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
 कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।

 किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
 बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
 मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
 झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
 दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

 वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
 लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
 लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
 मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
 मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।

 अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
 सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
 प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
 माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
 चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

 आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
 व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
 वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
 क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
 नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

 माँ ओ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
 पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
 मैंने पूछा यह क्या लायी? बोल उठी वह माँ, काओ ।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – तुम्हीं खाओ ॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।

 उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
 मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
 मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
 जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
 भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

कोयल – सुभद्रा कुमारी चौहान (3)

देखो कोयल काली है पर, 
मीठी है इसकी बोली,
इसने ही तो कूक कूक कर,
आमों में मिश्री घोली।
 कोयल कोयल सच बतलाना,
क्या संदेसा लायी हो?

बहुत दिनों के बाद आज फिर,
इस डाली पर आई हो।
 क्या गाती हो किसे बुलाती?
बतला दो कोयल रानी,
प्यासी धरती देख मांगती,
हो क्या मेघों से पानी?

कोयल यह मिठास क्या तुमने,
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी,
बोली यह सिखलायी है?
डाल डाल पर उड़ना गाना,
जिसने तुम्हें सिखाया है,

सबसे मीठे मीठे बोलो,
यह भी तुम्हें बताया है।
 बहुत भली हो तुमने माँ की,
बात सदा ही है मानी,
इसीलिये तो तुम कहलाती,
हो सब चिड़ियों की रानी।

आराधना – सुभद्रा कुमारी चौहान (4)

जब मैं आँगन में पहुँची,
पूजा का थाल सजाए।
 शिव जी की तरह दिखे वे,
बैठे थे ध्यान लगाए॥

 जिन चरणों के पूजन को, 
यह हृदय विकल हो जाता।
 मैं समझ न पाई, वह भी, 
है किसका ध्यान लगाता?
मैं सन्मुख ही जा बैठी,

कुछ चिंतित सी घबराई।
यह किसके आराधक हैं,
मन में व्याकुलता छाई॥
मैं इन्हें पूजती निशि-दिन,
ये किसका ध्यान लगाते?

हे विधि! कैसी छलना है,
हैं कैसे दृश्य दिखाते??
टूटी समाधि इतने ही में,
नेत्र उन्होंने खोले।
 लख मुझे सामने हँस कर

 मीठे स्वर में वे बोले॥
 फल गई साधना मेरी,
तुम आईं आज यहाँ पर।
 उनकी मंजुल-छाया में
 भ्रम रहता भला कहाँ पर॥

 अपनी भूलों पर मन यह
जाने कितना पछताया।
 संकोच सहित चरणों पर,
जो कुछ था वही चढ़ाया॥

उल्लास – सुभद्रा कुमारी चौहान (5)

शैशव के सुन्दर प्रभात का
 मैंने नव विकास देखा।
 यौवन की मादक लाली में
 जीवन का हुलास देखा।।
 जग-झंझा-झकोर में

 आशा-लतिका का विलास देखा।
 आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।।
 जीवन में न निराशा मुझको
 कभी रुलाने को आयी।

जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आयी।।
अरिदल की पहिचान कराने
 नहीं घृणा आने पायी।
 नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
 भीषणता लाने पायी।।

अनोखा दान – सुभद्रा कुमारी चौहान (6)

अपने बिखरे भावों का मैं,
गूँथ अटपटा सा यह हार।
 चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार॥
 डर था कहीं उपस्थिति मेरी,

उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य।
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा,
मेरे इन भावों का मूल्य?
संकोचों में डूबी मैं जब,
पहुँची उनके आँगन में।

 कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।
 किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला,

तुमने मुझे अहो मतिमान!
मैं अपने झीने आँचल में,
इस अपार करुणा का भार।
 कैसे भला सँभाल सकूँगी,
उनका वह स्नेह अपार।

 लख महानता उनकी पल-पल,
देख रही हूँ अपनी ओर।
मेरे लिए बहुत थी केवल,
उनकी तो करुणा की कोर।

उपेक्षा – सुभद्रा कुमारी चौहान (7)

इस तरह उपेक्षा मेरी,
क्यों करते हो मतवाले!
आशा के कितने अंकुर,
मैंने हैं उर में पाले॥
विश्वास-वारि से उनको,

मैंने है सींच बढ़ाए।
निर्मल निकुंज में मन के,
रहती हूँ सदा छिपाए॥
 मेरी साँसों की लू से,
कुछ आँच न उनमें आए।

 मेरे अंतर की ज्वाला,
उनको न कभी झुलसाए॥
कितने प्रयत्न से उनको,
मैं हृदय-नीड़ में अपने,
बढ़ते लख खुश होती थी,

देखा करती थी सपने॥
 इस भांति उपेक्षा मेरी,
करके मेरी अवहेला,
तुमने आशा की कलियाँ
मसलीं खिलने की बेला॥

कलह-कारण – सुभद्रा कुमारी चौहान (8)

कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।
पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥
तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।
पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥
 उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।

 मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं॥
कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।
वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं॥
 अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।
 नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी॥

 हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।
 गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी॥

इसका रोना – सुभद्रा कुमारी चौहान (9)

तुम कहते हो – मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है।
 मैं कहती हूँ – इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है॥
 सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे।
 बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे॥1॥

ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो।
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो॥
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है।
 छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है॥2॥

हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है।
 पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है॥
 जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है।
 छूटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है॥3॥

मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है।
 जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है॥
 मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में।
 जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में॥4॥

मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ।
 वह मेरी प्यारी बिटिया है, मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ॥
 तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान।
 जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान॥5॥

चलते समय – सुभद्रा कुमारी चौहान (10)

तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा…’ कहते रुकती है जबान,
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!

सेवा करना था, जहाँ मुझे
 कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला,
बलि होकर जहाँ चुकाना था॥

 मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
 वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥

चिंता – सुभद्रा कुमारी चौहान (11)

 लगे आने, हृदय धन से
 कहा मैंने कि मत आओ।
 कहीं हो प्रेम में पागल
न पथ में ही मचल जाओ॥

 कठिन है मार्ग, मुझको
 मंजिलें वे पार करनीं हैं।
उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें
 शायद फिसल जाओ॥

 तुम्हें कुछ चोट आ जाए
 कहीं लाचार लौटूँ मैं।
 हठीले प्यार से व्रत-भंग
 की घड़ियाँ निकट लाओ॥

जीवन-फूल – सुभद्रा कुमारी चौहान (12)

मेरे भोले मूर्ख हृदय ने
 कभी न इस पर किया विचार।
 विधि ने लिखी भाल पर मेरे
 सुख की घड़ियाँ दो ही चार॥

 छलती रही सदा ही
मृगतृष्णा सी आशा मतवाली।
 सदा लुभाया जीवन साकी ने
 दिखला रीती प्याली॥

 मेरी कलित कामनाओं की
 ललित लालसाओं की धूल।
 आँखों के आगे उड़-उड़ करती है
 व्यथित हृदय में शूल॥

 उन चरणों की भक्ति-भावना
 मेरे लिए हुई अपराध।
 कभी न पूरी हुई अभागे
 जीवन की भोली सी साध॥

 मेरी एक-एक अभिलाषा
 का कैसा ह्रास हुआ।
 मेरे प्रखर पवित्र प्रेम का
 किस प्रकार उपहास हुआ॥

 मुझे न दुख है
 जो कुछ होता हो उसको हो जाने दो।
 निठुर निराशा के झोंकों को
 मनमानी कर जाने दो॥
 हे विधि इतनी दया दिखाना

 मेरी इच्छा के अनुकूल।
 उनके ही चरणों पर
बिखरा देना मेरा जीवन-फूल॥

खिलौनेवाला – सुभद्रा कुमारी चौहान (13)

वह देखो माँ आज
 खिलौनेवाला फिर से आया है।
 कई तरह के सुंदर-सुंदर
 नए खिलौने लाया है।

 हरा-हरा तोता पिंजड़े में,
गेंद एक पैसे वाली,
छोटी सी मोटर गाड़ी है,
सर-सर-सर चलने वाली।

 सीटी भी है कई तरह की,
कई तरह के सुंदर खेल,
चाभी भर देने से भक-भक,
करती चलने वाली रेल।

 गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली,
छोटा-सा टी सेट है,
छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।

 छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं,
हैं छोटी-छोटी तलवार,
नए खिलौने ले लो भैया,
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।

 मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है,
मोहन ने मोटर गाड़ी
 मचल-मचल सरला करती है,

माँ ने लेने को साड़ी,
कभी खिलौनेवाला भी माँ,
क्‍या साड़ी ले आता है।

 साड़ी तो वह कपड़े वाला,
कभी-कभी दे जाता है।
 अम्‍मा तुमने तो लाकर के,
मुझे दे दिए पैसे चार,

कौन खिलौने लेता हूँ मैं,
तुम भी मन में करो विचार।
 तुम सोचोगी मैं ले लूँगा,
तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल,

पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा,
ये तो हैं बच्‍चों के खेल।
 मैं तो तलवार ख़रीदूँगा माँ,
या मैं लूँगा तीर-कमान,

जंगल में जा, किसी ताड़का
 को मारुँगा राम समान।
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा,

यों ही कुछ दिन करते-करते,
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।
 यही रहूँगा कौशल्‍या मैं,
तुमको यही बनाऊँगा,

तुम कह दोगी वन जाने को,
हँसते-हँसते जाऊँगा।
 पर माँ, बिना तुम्‍हारे वन में,
मैं कैसे रह पाऊँगा?
दिन भर घूमूँगा जंगल में

 लौट कहाँ पर आऊँगा।
 किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
 तो कौन मना लेगा,
कौन प्‍यार से बिठा गोद में,
मनचाही चींजे़ देगा।

तुम – सुभद्रा कुमारी चौहान (14)

जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,
है जीवन में जीवन।
 कोई नहीं छीन सकता
तुमको मुझसे मेरे धन॥

 आओ मेरे हृदय-कुंज में
निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी
 मैं अपने अंतर का द्वार॥

 नहीं लांछना की लपटें
 प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।
 पीड़ित करने तुम्हें
 वेदनाएं न वहाँ आएँगीं॥

 अपने उच्छ्वासों से मिश्रित
 कर आँसू की बूँद।
 शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम
 सोना आँखें मूँद॥

 जगने पर पीना छक-छककर
 मेरी मदिरा की प्याली।
 एक बूँद भी शेष
 न रहने देना करना ख़ाली॥

 नशा उतर जाए फिर भी
 बाकी रह जाए खुमारी।
 रह जाए लाली आँखों में
 स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी॥

झाँसी की रानी की समाधि पर – सुभद्रा कुमारी चौहान (15)

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |

बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||

इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||

बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

ठुकरा दो या प्यार करो – सुभद्रा कुमारी चौहान (16)

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं

 सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

 धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं

 मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

 मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी

 फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

 धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का शृंगार नहीं

 हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

 कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं

 मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

 नहीं दान है, नहीं दक्षिणा ख़ाली हाथ चली आयी

 पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

 पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो

 दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

 मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ

 जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

 चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो

 यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

झिलमिल तारे – सुभद्रा कुमारी चौहान (17)

कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
 झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
 चमक रहे मन मारे।।

 अपलक आँखों से कह दो
 किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
 मुक्तावलि वारा करते

करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
 नीरव रजनी अंचल में
 तुम कभी न छिप कर सोते।।

 जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
 नभ के सूने आँगन में
 तुम धीरे-धीरे आते।।

 विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
 क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।

 मैं भी वियोगिनी मुझसे
 फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
 हे झिलमिल-झिलमिल तारे

परिचय – सुभद्रा कुमारी चौहान (18)

क्या कहते हो कुछ लिख दूँ मैं
 ललित-कलित कविताएं।
 चाहो तो चित्रित कर दूँ
जीवन की करुण कथाएं॥

सूना कवि-हृदय पड़ा है,
इसमें साहित्य नहीं है।
 इस लुटे हुए जीवन में,
अब तो लालित्य नहीं है॥

 मेरे प्राणों का सौदा,
करती अंतर की ज्वाला।
 बेसुध-सी करती जाती,
क्षण-क्षण वियोग की हाला॥

 नीरस-सा होता जाता,
जाने क्यों मेरा जीवन।
 भूली-भूली सी फिरती,
लेकर यह खोया-सा मन॥

 कैसे जीवन की प्याली टूटी,
मधु रहा न बाकी?
कैसे छुट गया अचानक
मेरा मतवाला साकी??

सुध में मेरे आते ही
मेरा छिप गया सुनहला सपना।
 खो गया कहाँ पर जाने?
जीवन का वैभव अपना॥
 क्यों कहते हो लिखने को,

पढ़ लो आँखों में सहृदय।
 मेरी सब मौन व्यथाएं,
मेरी पीड़ा का परिचय॥

पानी और धूप – सुभद्रा कुमारी चौहान (19)

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
 किसने फोड़ घड़े बादल के
 की है इतनी शैतानी।
 सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया

 अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
 बुला लिया कहकर आजा।
 ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं

 बादल हैं किसके काका
 किसको डाँट रहे हैं, किसने
 कहना नहीं सुना माँ का।
 बिजली के आँगन में अम्‍माँ

 चलती है कितनी तलवार
 कैसी चमक रही है फिर भी
क्‍यों ख़ाली जाते हैं वार।
 क्‍या अब तक तलवार चलाना

 माँ वे सीख नहीं पाए
 इसीलिए क्‍या आज सीखने
 आसमान पर हैं आए।
 एक बार भी माँ यदि मुझको

 बिजली के घर जाने दो
 उसके बच्‍चों को तलवार
 चलाना सिखला आने दो।
 खुश होकर तब बिजली देगी

 मुझे चमकती सी तलवार
 तब माँ कर न कोई सकेगा
 अपने ऊपर अत्‍याचार।
 पुलिसमैन अपने काका को

 फिर न पकड़ने आएँगे
 देखेंगे तलवार दूर से ही
 वे सब डर जाएँगे।
 अगर चाहती हो माँ काका

 जाएँ अब न जेलखाना
 तो फिर बिजली के घर मुझको
 तुम जल्‍दी से पहुँचाना।
काका जेल न जाएँगे अब

 तूझे मँगा दूँगी तलवार
 पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।

पूछो – सुभद्रा कुमारी चौहान (20)

विफल प्रयत्न हुए सारे,
मैं हारी, निष्ठुरता जीती।
अरे न पूछो, कह न सकूँगी,
तुमसे मैं अपनी बीती॥

 नहीं मानते हो तो जा
 उन मुकुलित कलियों से पूछो।
अथवा विरह विकल घायल सी
 भ्रमरावलियों से पूछो॥

 जो माली के निठुर करों से
 असमय में दी गईं मरोड़।
 जिनका जर्जर हृदय विकल है,
प्रेमी मधुप-वृंद को छोड़॥

 सिंधु-प्रेयसी सरिता से तुम
 जाके पूछो मेरा हाल।
 जिसे मिलन-पथ पर रोका हो,
कहीं किसी ने बाधा डाल॥

नीम – सुभद्रा कुमारी चौहान (21)

सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
 तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥

 हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
 उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥
 नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
 कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥

 तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
 तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥
 है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
 ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥

 तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥
 तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥
 प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।

 जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥
 तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
 निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥

प्रथम दर्शन – सुभद्रा कुमारी चौहान (22)

प्रथम जब उनके दर्शन हुए,
हठीली आँखें अड़ ही गईं।
 बिना परिचय के एकाएक
 हृदय में उलझन पड़ ही गई॥

 मूँदने पर भी दोनों नेत्र,
खड़े दिखते सम्मुख साकार।
 पुतलियों में उनकी छवि श्याम
 मोहिनी, जीवित जड़ ही गई॥

 भूल जाने को उनकी याद,
किए कितने ही तो उपचार।
 किंतु उनकी वह मंजुल-मूर्ति
 छाप-सी दिल पर पड़ ही गई॥

प्रभु तुम मेरे मन की जानो – सुभद्रा कुमारी चौहान (23)

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
 प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
 यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

 इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

 मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
 और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
 मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

 तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
 बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

 कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
 दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
 मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
 यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
 ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

 मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
 वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
 और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

 तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
 छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

प्रतीक्षा – सुभद्रा कुमारी चौहान (24)

बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित
 नयनों के मदु मुक्ता-जाल।
 उनमें जाने कितनी ही
 अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥

 बिता दिए मैंने कितने ही
 व्याकुल दिन, अकुलाई रात।
नीरस नैन हुए कब करके
उमड़े आँसू की बरसात॥

 मैं सुदूर पथ के कलरव में,
सुन लेने को प्रिय की बात।
 फिरती विकल बावली-सी
सहती अपवादों के आघात॥

 किंतु न देखा उन्हें अभी तक
 इन ललचाई आँखों ने।
 संकोचों में लुटा दिया
सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥

 अब मोती के जाल बिछाकर,
गिनतीं हैं नभ के तारे।
इनकी प्यास बुझाने को सखि!
आएंगे क्या फिर प्यारे?

प्रियतम से – सुभद्रा कुमारी चौहान (25)

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
 चाहे मुझ पर प्यार न हो॥

 जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
 लो प्रसन्न हो जाओ
 ग़लती मैंने अपनी सब मानी॥

 मैं भूलों की भरी पिटारी
 और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥

फूल के प्रति – सुभद्रा कुमारी चौहान (26)

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
 नहीं है सुमन कुंज में अभी
 इसी से है तेरा सम्मान॥

 मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
 नहीं आवेंगे तेरे पास॥

 सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
 भुलावा है, मत करना गर्व
 डाल पर के मुरझाए फूल॥

मेरी टेक – सुभद्रा कुमारी चौहान (27)

निर्धन हों धनवान, परिश्रम उनका धन हो।
निर्बल हों बलवान, सत्यमय उनका मन हो॥
हों स्वाधीन ग़ुलाम, हृदय में अपनापन हो।
 इसी आन पर कर्मवीर तेरा जीवन हो॥

 तो, स्वागत सौ बार
करूँ आदर से तेरा।
 आ, कर दे उद्धार,
मिटे अंधेर-अंधेरा॥

भ्रम – सुभद्रा कुमारी चौहान (28)

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।
देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था॥

 देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।
हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं॥

 देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।
 वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था॥

झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।
 सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था॥

 किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।
 मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी॥

मुरझाया फूल – सुभद्रा कुमारी चौहान (29)

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
 स्वयं बिखरने वाली इसकी
 पंखड़ियाँ बिखराना मत॥

 गुजरो अगर पास से इसके
 इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
 देखो, इसे रुलाना मत॥

 अगर हो सके तो ठंडी
 बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!

मेरा गीत – सुभद्रा कुमारी चौहान (30)

जब अंतस्तल रोता है,
कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊँ?
इन टूटे से तारों पर,
मैं कौन तराना गाऊँ??

सुन लो संगीत सलोने,
मेरे हिय की धड़कन में।
कितना मधु-मिश्रित रस है,
देखो मेरी तड़पन में॥

 यदि एक बार सुन लोगे,
तुम मेरा करुण तराना।
हे रसिक! सुनोगे कैसे?
फिर और किसी का गाना॥

 कितना उन्माद भरा है,
कितना सुख इस रोने में?
उनकी तस्वीर छिपी है,
अंतस्तल के कोने में॥

 मैं आँसू की जयमाला,
प्रतिपल उनको पहनाती।
 जपती हूँ नाम निरंतर,
रोती हूँ अथवा गाती॥

मेरे पथिक – सुभद्रा कुमारी चौहान (31)

हठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥

 यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
 सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥

 जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
 लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥

 चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
 विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥

 विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
 भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥

बिदाई – सुभद्रा कुमारी चौहान (32)

कृष्ण-मंदिर में प्यारे बंधु
 पधारो निर्भयता के साथ।
 तुम्हारे मस्तक पर हो सदा
कृष्ण का वह शुभचिंतक हाथ॥

 तुम्हारी दृढ़ता से जग पड़े
देश का सोया हुआ समाज।
तुम्हारी भव्य मूर्ति से मिले
शक्ति वह विकट त्याग की आज॥

 तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें
 दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
 हमारे हृदय बनें बलवान
तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज॥

 तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
 युद्ध में वे निर्भय मर मिटें॥

 हजारों हृदय बिदा दे रहे,
उन्हें संदेशा दो बस एक।
 कटें तीसों करोड़ ये शीश,
न तजना तुम स्वराज्य की टेक॥

विजयी मयूर – सुभद्रा कुमारी चौहान (33)

तू गरजा, गरज भयंकर थी,
कुछ नहीं सुनाई देता था।
घनघोर घटाएं काली थीं,
पथ नहीं दिखाई देता था॥

 तूने पुकार की जोरों की,
वह चमका, गुस्से में आया।
 तेरी आहों के बदले में,
उसने पत्थर-दल बरसाया॥

 तेरा पुकारना नहीं रुका,
तू डरा न उसकी मारों से।
आखिर को पत्थर पिघल गए,
आहों से और पुकारों से॥

 तू धन्य हुआ, हम सुखी हुए,
सुंदर नीला आकाश मिला।
 चंद्रमा चाँदनी सहित मिला,
सूरज भी मिला, प्रकाश मिला॥

 विजयी मयूर जब कूक उठे,
घन स्वयं आत्मदानी होंगे।
 उपहार बनेंगे वे प्रहार,
पत्थर पानी-पानी होंगे॥

मेरा जीवन – सुभद्रा कुमारी चौहान (34)

मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
 मेरे जीवन में सोना।

 मैं अब तक जान न पाई
 कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में

 कैसे करती है चिंता क्रिडा।
 जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे

 सुख का सागर लहराता।
 उत्साह, उमंग निरंतर
 रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता

 मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
 मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित

 मेरी असफलता के घन।
 सुख-भरे सुनले बादल
 रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।

विदा – सुभद्रा कुमारी चौहान (35)

अपने काले अवगुंठन को
रजनी आज हटाना मत।
जला चुकी हो नभ में जो
 ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥

 सजनि! विश्व में आज
तना रहने देना यह तिमिर वितान।
 ऊषा के उज्ज्वल अंचल में
 आज न छिपना अरी सुजान॥

 सखि! प्रभात की लाली में
 छिन जाएगी मेरी लाली।
 इसीलिए कस कर लपेट लो,
तुम अपनी चादर काली॥

 किसी तरह भी रोको, रोको,
सखि! मुझ निधनी के धन को।
 आह! रो रहा रोम-रोम
फिर कैसे समझाऊँ मन को॥

 आओ आज विकलते!
जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी।
 मेरे आकुल प्राण जला दो,
आओ तुम बारी-बारी॥

 ज्योति नष्ट कर दो नैनों की,
लख न सकूँ उनका जाना।
 फिर मेरे निष्ठुर से कहना,
कर लें वे भी मनमाना॥

मधुमय प्याली – सुभद्रा कुमारी चौहान (36)

रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
 फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।

 हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।

 युग-युग-सी बीत रही थीं
 मेरे जीवन की घड़ियाँ।
 सुलझाये नहीं सुलझती
 उलझे भावों की लड़ियाँ।

 जाने इस समय कहाँ से
 ये चुपके-चुपके आए।
 सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।

 मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
 मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।

 विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
 वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।

 आओ हम उसी तरह से
 सब भेद भूल कर अपना।
 मिल जाएँ मधु बरसायें
 जीवन दो दिन का सपना।।

 फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
 आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।

यह कदम्ब का पेड़ – सुभद्रा कुमारी चौहान (37)

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे
 मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे धीरे
 ले देती यदि मुझे तुम बांसुरी दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

 तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मां ऊंचे पर चढ़ जाता
 वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता
 अम्‍मां-अम्‍मां कह बंसी के स्‍वरों में तुम्‍हें बुलाता

 सुन मेरी बंसी मां, तुम कितना खुश हो जातीं
 मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं
 तुमको आती देख, बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार मां कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता

 तुम हो चकित देखती, चारों ओर ना मुझको पातीं
 व्‍या‍कुल सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं
 पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुनकर,जब ऊपर आंख उठातीं
 मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं

 ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं नीचे आ जा
 पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं मुन्‍ना राजा
 नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
 नये खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी

 मैं हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मैं ना उतरकर आता
मां, तब मां का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता

 तुम आंचल फैलाकर अम्‍मां, वहीं पेड़ के नीचे
 ईश्‍वर से विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे
 तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे धीरे आता
और तुम्‍हारे आंचल के नीचे छिप जाता

 तुम घबराकर आंख खोलतीं, और मां खुश हो जातीं
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
 यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

वीरों का हो कैसा वसन्त – सुभद्रा कुमारी चौहान (38)

आ रही हिमालय से पुकार
 है उदधि गरजता बार बार
 प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त

 वीरों का हो कैसा वसन्त
 फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;

है वीर देश में किन्तु कंत
 वीरों का हो कैसा वसन्त
भर रही कोकिला इधर तान
 मारू बाजे पर उधर गान

 है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
 वीरों का हो कैसा वसन्त
 गलबाहें हों या कृपाण

 चलचितवन हो या धनुषबाण
 हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
 वीरों का हो कैसा वसन्त

 कह दे अतीत अब मौन त्याग
 लंके तुझमें क्यों लगी आग
 ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत

 वीरों का हो कैसा वसन्त
 हल्दीघाटी के शिला खण्ड
 ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
 राणा ताना का कर घमंड;

दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
 वीरों का हो कैसा वसन्त
 भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं

 है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
 वीरों का हो कैसा वसन्त

वेदना – सुभद्रा कुमारी चौहान (39)

दिन में प्रचंड रवि-किरणें
मुझको शीतल कर जातीं।
 पर मधुर ज्योत्स्ना तेरी,
हे शशि! है मुझे जलाती॥

 संध्या की सुमधुर बेला,
सब विहग नीड़ में आते।
 मेरी आँखों के जीवन,
बरबस मुझसे छिन जाते॥

 नीरव निशि की गोदी में,
बेसुध जगती जब होती।
 तारों से तुलना करते,
मेरी आँखों के मोती॥

 झंझा के उत्पातों सा,
बढ़ता उन्माद हृदय का।
 सखि! कोई पता बता दे,
मेरे भावुक सहृदय का॥

 जब तिमिरावरण हटाकर,
ऊषा की लाली आती।
 मैं तुहिन बिंदु सी उनके,
स्वागत-पथ पर बिछ जाती॥

 खिलते प्रसून दल, पक्षी
कलरव निनाद कर गाते।
 उनके आगम का मुझको
 मीठा संदेश सुनाते॥

साध – सुभद्रा कुमारी चौहान (40)

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
 भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।

वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।

 कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।

सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।

 सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
 हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।

 रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
 दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।

 तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
 निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।

स्वदेश के प्रति – सुभद्रा कुमारी चौहान (41)

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
 तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा॥

 आ, उस बालक के समान
 जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
 विपदाएं ही हैं प्यारी॥

 आ, उस सेवक के समान तू
 विनय-शील अनुगामी सा।
 अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
 कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥

 आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
 अत्याचारी की कृतियों को
 निर्भयता से दरसाईं॥

समर्पण – सुभद्रा कुमारी चौहान (42)

सूखी सी अधखिली कली है
 परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग़ नहीं॥

 तेरी अतुल कृपा का बदला
 नहीं चुकाने आई हूँ।
 केवल पूजा में ये कलियाँ
 भक्ति-भाव से लाई हूँ॥

 प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
 मधुर वासनाएं प्यारी।
 मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा
 सजा रहीं थीं फुलवारी॥

 किंतु गर्व का झोंका आया
 यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥
 बची हुई स्मृति की ये कलियाँ

 मैं समेट कर लाई हूँ।
 तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
 तुझे मनाने आई हूँ॥
 प्रेम-भाव से हो अथवा हो

 दया-भाव से ही स्वीकार।
 ठुकराना मत, इसे जानकर
 मेरा छोटा सा उपहार॥

व्याकुल चाह – सुभद्रा कुमारी चौहान (43)

सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
 प्यास बुझाने आए हो??

रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
 बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥

 झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
 पल-पल विजन डुलाती उस पर
 अकुलाए प्राणों की आह॥

 रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥

जलियाँवाला बाग में बसंत – सुभद्रा कुमारी चौहान (44)

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
 कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,

हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,

दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
 कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,

तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,

कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
 आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,

कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
 तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
 यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

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