Mera Priya Kavi Par Nibandh | मेरा प्रिय कवि पर निबंध

मेरा प्रिय कवि पर निबंध

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इसलिए हम इस लेख में सरल भाषा में मेरा प्रिय कवि पर निबंध लिख्नकर बताये है इसे पढ़कर आप मेरा प्रिय कवि पर निबंध लिखने का नमूना पेश किये है। 

मेरा प्रिय कवि पर निबंध (350 शब्द) 

प्रस्तावना

संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ है मेरे प्रिय साहित्यकार महाकवि तुलसीदास है यद्यदि तुम्सीदास जी के काम में शक्ति-भावना की अधानता है, परंतु इनका कारण कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमान मे स्वा-क्या हुआ है और उनका मार्ग-दर्शन कर रहा है। इसलिये तुलसी दास मेरे प्रिय साहित्यकार है। 

आरंभिक जीवन परिचय

“प्राय: प्राचीन कवियों और लेखको के जन्म के बारे 1 मे सही सही जानकारी नहीं मिलती तुपसीदास के विपण मे भी ऐसा ही है किन माना जाता है कि नर्मदास का जन्म सम्बत् 1589 में बाँदा जिले में हुआ था।

इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम डुलसी या भटरिवास ने उनको शिक्षा दी इनका विवाह रत्नावली नाम की कन्या से हुआ था। विवाह पर उसकी एक कर लक्त सुनकर इहोने शुभभक्ति को ही अपने जीवन का हरीय चुना लिया, 5 होने और जीवन काल में लगभग सैतीस ग्रंथों की रचना की परंतु इनके वारह अन्य ही प्रामाणिक माने जाते है उस महान भक्त काँते का देहावसान सम्वत् 1680 में हुआ।

काव्यगत विशेषताएँ 

तुमसीदास का जन्म से समय में हुआ था जब हिंदू समाज मुसलमान शासको के अत्याचारों से आतंकित था लोगों का नैतिक चरित गिर रहा था और लोग संस्कारहीन हो रहे थे ऐसे मे समाज के सामने एक आर्य स्थापित करने की आवश्यकता थी ताकि लोग उचित – अनुचित का भेद समझकर सही आचरण कर सके।

यह भार तुलसीदास ने सम्भावा और वामचरितमान ‘श’ नामक महान काव्य की बरना की। इसके माध्यम से इन्होने अपने प्रभु श्रीराम का चरित – चरिवल चितन किया हालांकि रामचरितमानस एक भक्ति भावना प्रधान काव्य है।

परंतु इसके माध्यम को जानता की अपनी सामाजिक कल्बी का गहना प्रभाव डाला रामचरित मानस के अतिरिक्त उहोंने कवितावली गीतावली दोहावली, विनगपतिका, जानकी मंगल, रामायण आदि ग्रन्थों की रचना भी की है, परंतु इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आभार रामचरित मानस ही है।

तुलसी ने प्रबंध तथा मुक्त योनी प्रकार के कामों में सनाश की। इनकी प्रशंसा में कवि जयशंकर प्रसाद ने लिया

 “”प्रभु का निर्णय सेवक था. स्वामी था अपना
जाग चुका था, जगू था जिसके आगि सपना 
प्राप्त प्रचारक था, जो उस प्रभु की पचता का.
अनुभूत था. सम्पुर्ण जिसे उसकी विभुता का।
दाम दोडकर और की, जिसने कभी न आए की
रामचरित मानस – कमाल: जय हो तुलसीदास की।

मेरा प्रिय कवि पर निबंध (1000 शब्द) 

प्रस्तावना

अपने-अपने मन की बात है किसी को मीठा अच्छा लगता है और किसी को खट्टा और नमकीन किसी को फीका दूध अच्छा लगता है तो किसी को मिर्चों वाली चाट अच्छी लागती है हिन्दी साहित्य के अथाह समुद्र में अनेक मूर्धन्य रत्न हैं किसी को कोई रत्न पसन्द है, किसी को कोई, महाकवि बिहारी का नाम आते ही मस्तक काव्य-सौष्ठव के सामने मस्तक स्वतः ही हिन्दी साहित्य में महाकवि झुक जाता है।

बिहारी की कविता हृदयंगम बिहारी का स्थान । करने के लिय यह आवश्यक है कि जिस समय बिहारी ने काव्य रचना की, उसका पूर्णरूप से ज्ञान हो, तभी हम उस महाकवि की पंक्तियों को समझ सकेंगे महाकवि बिहारी सत्रहवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। इनके जन्म के समय तुलसी और केशव भी इसी धराधाम पर विद्यमान थे।

परन्तु जब बिहारी की अवस्था छोटी ही थी, तब तक तुलसी का स्वर्गवास हो गया था। बिहारी के समकालीन कवियों में भूषण तथा देव के नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। यह समय भारतवर्ष के लिए सुख और समृद्धि का समय था, देश में सर्वत्र शान्ति छाई हुई थी। जहाँगीर और शाहजहाँ विलास की सरिता में गोते लगा रहे थे।

“यथा राजा तथा प्रजा” की उक्ति उस समय पूर्णरूपेण चरितार्थ हो रहीं थी प्रजा में भी विलासिता ने घर कर लिया था; अतः देश में ऐसे विलासमय वातावरण में रसिक जनों का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था कविगण अपने आश्रय-दाताओं को संतुष्ट करने के लिए विलासिता प्रधान शृंगार रस की कविताओं की रचना करते थे। 

जीवन वृत्त

महाकवि बिहारी का जन्म सम्वत् 1652 में ग्वालियर में हुआ था। ये जाति के माथुर चौबे थे। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनके एक दोहे से स्पष्ट होता है कि इनकी ससुराल मथुरा में थी।

जनम ग्वालियर जानिए, खण्ड बुन्देले, बाल ।
तरूनाई आई सुखद मथुरा बसि ससुराल ॥

अपने पिता की श्रीकृष्ण के साथ समानता करते हुए बिहारी लिखते हैं-

प्रगट भये द्विजराजकुल, सुबस बसे ब्रज आइ ।
मेरे हरौ कलेस सब केसव केसव राइ ॥

बिहारी को अपनी ससुराल बड़ी प्रिय थीं। वे वहीं जाकर रहने लगे, परन्तु धीरे-धीरे इनका आदर-सत्कार कम होने लगा। वहाँ रहने पर इन्होंने जो अनुभव किया-

आवत जात न जानिए, तेजहिं तजि सियरान ।
धरहिं जवाई लौं घटयौ, खरौ पूस दिन मान ॥

ससुराल से निरादृत होकर ये सम्भवतः जयपुर चले गये। महाराजा जयसिंह ने अपनी नवेली रानी के प्रेम में पड़कर सब राजकाज भुला दिया था। बिहारी ने अपने कवित्व के बल पर अन्योक्ति का आश्रय लेकर उन्हें इस मोह-निन्द्रा से जगा दिया –

नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं विकासु इहि काल ।
अली, कली ही सौ बिंध्यौ, आगे कौन हवाल ।

बिहारी का व्यक्तित्व पूर्ण रसमय था, नारी सुन्दर हो या कुरूप सभी पर अपनी जान देते थे। उन्होंने लिखा है, “नारि सलौनी सांवरी नागिन लौं डसि जाय। ” स्वाभिमानी थे और स्पष्टवादिता में वे रसिकता से भी एक पग आगे थे। एक ओर जयसिंह की मोहनिद्रा भंग की, दूसरी और मुगलों का पक्ष लेकर हिन्दू राजाओं के आक्रमण करने से जयसिंह को रोका भी,

स्वारथु, सुकृत न, स्त्रमु बृथा, देखि विहंग बिचारि ।
बाल, पराए पानि परि, तू पंछिनु न मारि ॥

आचार्यत्व 

अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति बिहारी ने कोई लक्षण-ग्रन्थ नहीं लिखा। कारण यह था कि जिस पद की लालसा से तत्कालीन कवि लक्षण-ग्रन्थ लिखते थे, वह राजकवि का पद उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुका था।

शृंगार के जितने भी अनुभव, विभाव, संचारी भाव हो सकते हैं, इन सबके पुष्ट उदाहरण उनकी ‘सतसई’ में मिलते हैं। उनका प्रत्येक दोहा स्वयं में लक्षण ग्रन्थ है। स्थान-स्थान पर अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियों के उनके काव्य में दर्शन होते हैं।

इसलिये इनके दोहों को “नाविक के तीर” की संज्ञा दी गई है, जो देखने में छोटे लगते हैं, परन्तु घाव बड़ा गहरा करते हैं –

सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर । 
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥

भाव सबलता में ये महाकवि सिद्धस्त थे। एक ही दोहे में बिहारी ने अनेक विभाव और अनुभाव, , सौन्दर्य तथा सूक्ष्म मनोवृत्तियों का चित्रण बड़ी योग्यतापूर्वक किया है,

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सौं बात ।

X X X X X X X X X X

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ ।
सौंह करै भौंहनु हँसे, देन कहै नटि जाइ ॥

बहुज्ञता

बिहारी में सर्वतोन्मुखी प्रतिभा थी, प्रकाण्ड पाडित्य था उन्हें गणित, ज्योतिष, दर्शन, विज्ञान, वैद्यक आदि विभिन्न विषयों का पर्याप्त ज्ञान था। सर्वप्रथम बिहारी की दार्शनिक पंक्तियों को लीजिए। दर्शन सम्बन्धी गूढ़ रहस्यों को उन्होंने कितने सुन्दर ढंग से व्यक्त किया हैं।

मैं समुझयौ निरधार, यह जगु कांचौ काँच सौ ।
एकै रूप अपार, प्रतिम्बित लखियतु जगत् ॥
जगत जनायौ जिहिं सकल सो हरि जान्यौ नाहिं ।
ज्यौं अँखियन सबु देखियै आँखि न देखी जाहि ॥

यद्यपि इन बातों को साधारण आदमी भी जानता है कि यह संसार असार है, इसमें सब कुछ ब्रह्म का ही स्वरूप है, परन्तु इन उक्तियों को काव्य रस से सींचकर पाठकों के सामने कोई-बिरले विद्वान् ही रख सकते हैं। इसी प्रकार बिहारी ने गणित के दो सामान्य नियमों को नायिका का सहारा लेकर बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है –

कहत सबै बैंदी दिए, आँकु दसगुनो होतु ।
तिय ललार बैंदी दिए, अगणित बढ़तु उदोतु ॥
कुटिल अलकु छुटि परतु मुख बढ़िगौ इतौ उदौतु ।
बंक बकारी देत न्यों, दाम रूपैया होतु ॥

विषम ज्वर में वैद्य प्रायः सुदर्शन चूर्ण दिया करते हैं-

यह बिनसतु नगु राखिकै, जगत् बड़ौ जसु लेहु ।
जरी विषम जुर ज्याइयै, आइ सुदरसन देहु ॥

उनके ज्योतिष सम्बन्धी दोहों से स्पष्ट है कि उनको ज्योतिष शास्त्र का अन्य विषयों की अपेक्षा अच्छा ज्ञान था। उन्होंने इन दोंहों में इसी ज्ञान का परिचय दिया है

मंगल बिन्दु सुरंग, मुख ससि केसरि आड़ गुरू ।
इक नारी लहि संग, रसमय किय लोचन जगतु ॥

इसी प्रकार बड़ी सुन्दरता से उन्होंने राजनीतिक बातों पर भी प्रकाश डाला है इस विषय में यह दोहा अधिक प्रसिद्ध हैं

दुसह दुराज प्रजानु कौ, क्यों न बढ़े दुख द्वन्द्व ।
अधिक अंधेरो जग करत, मिलि मावस रवि चन्द्र ॥

महाकवि बिहारी ने रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के वर्णन में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की है। प्रेम के संयोग वर्णन में कविगण प्राय: आलम्बन के रूप में तथा उसके हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, उसी का वर्णन किया करते हैं। नायक नायिकाओं में परस्पर हास्य विनोद की उक्तियाँ भी होती हैं।

ऋतुओं का वर्णन भी उद्दीपन के रूप में किया करते हैं। बिहारी ने भी इन सभी परम्परागत बातों का वर्णन किया है। प्रेमी अपने प्रिय के प्रेम में ऐसा लीन हो जाता है कि उसे प्रिय की साधारण वस्तु भी अधिक प्रिय प्रतीत होती है। प्रेम ने नायिका को पागल बना दिया है। नायक पतंग उड़ा रहा है। उसकी पतंग की परछाई नायिका के आँगन में पड़ रही है। नायिका पागल सी उसे पकड़ती फिर रही है। पतंग की छाया के स्पर्श में उसे नायक के संस्पर्शज सुख का आनन्द प्राप्त हो रहा है।

उड़ति गुड़ी लखि ललन की अँगना अँगना माहि ।
बौरी लौं दौरी फिरति, छुवत छबीली छाँहि ॥

जब प्रेमी अपनी सीमा से अधिक प्रेम में तल्लीन हो जाता है, तब उसे आत्म-विस्मरण हो जाता है, वह अपने आपको ही प्रिय समझने लगता है।

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