Kabir Ke Dohe | संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे अर्थ सहित

Kabir Ke Dohe

Kabir Ke Dohe : आज इस पोस्ट में आपको कबीर दास के दोहे भावार्थ सहित उपलब्ध कराएँगे कबीरदास 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को मानते हुए धर्म एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे।

बहुत सारे छात्र जिनको हिंदी भाषा से लगाव है वे Kabir Ke Dohe in Hindi चाहते है वैसे छात्रो के लिए हम कबीर दास के प्रसिद्ध दोहे भावार्थ सहित मौजूद कराये है।

Table of Contents

Kabir Ke Dohe in Hindi

(1)

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥1॥

भावार्थ : सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है । मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ ?क्या लेकर सन्तोष करूँ उनका ? मन की अभिलाषा मन में ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ ? वैसी वस्तु कहाँ से लाऊँ ?

(2)

सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर ।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर ॥2॥

भावार्थ : सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर निकलने का नहीं अब ।

(3)

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार ॥3॥

भावार्थ : अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का , मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर मैं अनन्त को देख रहा हूँ ।

(4)

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाड़ी कै बार ।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥4॥

भावार्थ : हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरू पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं ।

(5)

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥5॥

भावार्थ : गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े हैं ,दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकडूं !सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूं कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविनद से मिला दिया ।

(6)

ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ॥6॥

भावार्थ : लालच का दाँव दोनों पर चल गया , न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये ।

(7)

पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साथि ।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥7॥

भावार्थ : मैं भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक-वेद की गलियों में । मार्ग में गुरु मिल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में । इस उजेले में भटकना अब कैसा ?

(8)

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीष ॥8॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला । सन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही माँगते फिरते हैं वे ।

(9)

सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या परसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग ॥9॥

भावार्थ : एक दिन सद्गुरु हम पर ऐसे रीझे कि एक प्रसंग कह डाला,रस से भरा हुआ । और, प्रेम का बादल बरस उठा, अंग-अंग भीग गया उस वर्षा में ।

(10)

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥10॥

भावार्थ : यह शरीर तो बिष की लता है, बिषफल ही फलेंगे इसमें । और, गुरु तो अमृत की खान है । सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी यह सौदा सस्ता ही है ।

(11)

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥1॥

भावार्थ : सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है । मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ ?क्या लेकर सन्तोष करूँ उनका ? मन की अभिलाषा मन में ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ ? वैसी वस्तु कहाँ से लाऊँ ?

(12)

सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर ।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर ॥2॥

भावार्थ : सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर निकलने का नहीं अब ।

(13)

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार ॥3॥

भावार्थ : अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का , मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर मैं अनन्त को देख रहा हूँ ।

(14)

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाड़ी कै बार ।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥4॥

भावार्थ : हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरू पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं ।

(15)

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥5॥

भावार्थ : गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े हैं ,दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकडूं !सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूं कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया, गोविनद से मिला दिया ।

(16)

ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ॥6॥

भावार्थ : लालच का दाँव दोनों पर चल गया , न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये ।

(17)

पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साथि ।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥7॥

भावार्थ : मैं भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक-वेद की गलियों में । मार्ग में गुरु मिल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में । इस उजेले में भटकना अब कैसा ?

(18)

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीष ॥8॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला । सन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही माँगते फिरते हैं वे ।

(19)

सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या परसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग ॥9॥

भावार्थ : एक दिन सद्गुरु हम पर ऐसे रीझे कि एक प्रसंग कह डाला,रस से भरा हुआ । और, प्रेम का बादल बरस उठा, अंग-अंग भीग गया उस वर्षा में ।

(20)

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥10॥

भावार्थ : यह शरीर तो बिष की लता है, बिषफल ही फलेंगे इसमें । और, गुरु तो अमृत की खान है । सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी यह सौदा सस्ता ही है ।

(21)

भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा बाचा क्रमनां, कबीर सुमिरण सार ॥1॥

भावार्थ : हरि का नाम-स्मरण ही भक्ति है और वही भजन सच्चा है ; भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं केवल दिखावा है, और अपार दुःख की हेतु भी । पर स्मरण वह होना चाहिए मन से, बचन से और कर्म से, और यही नाम-स्मरण का सार है !

कबीर दास के दोहे भावार्थ सहित

(22)

कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई ।
राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होई ॥2॥

भावार्थ : मैं हमेशा कहता हूँ, रट लगाये रहता हूँ, सब लोग सुनते भी रहते हैं – यही कि राम का स्मरण करने से ही भला होगा, नहीं तो कभी भला होनेवाला नहीं । पर राम का स्मरण ऐसा कि वह रोम-रोम में रम जाय ।

(23)

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई ,जित देखौं तित तूं ॥3॥

भावार्थ : तू, ही है, तू ही है यह करते-करते मैं तू ही हो गयी, हूँ मुझमें कहीं भी नहीं रह गयी । उसपर न्यौछावर होते-होते मैं समर्पित हो गयी हूँ । जिधर भी नजर जाती है उधर तू-ही-तू दीख रहा है ।

(24)

कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि ।
जाको संग तैं बीछुड्या, ताही के संग लागि ॥4॥

भावार्थ : कबीर अपने आपको चेता रहे हैं, अच्छा हो कि दूसरे भी चेत जायं । अरे, सोया हुआ तू क्या कर रहा है ? जाग जा और अपने साथियों को देख, जो जाग गये हैं । यात्रा लम्बी है, जिनका साथ बिछड़ गया है और तू पिछड़ गया है, उनके साथ तू फिर लग जा ।

(25)

जिहि घटि प्रीति न प्रेम-रस, फुनि रसना नहीं राम ।
ते नर इस संसार में, उपजि खये बेकाम ॥5॥

भावार्थ : जिस घट में, जिसके अन्तर में न तो प्रीति है और न प्रेम का रस । और जिसकी रसना पर रामनाम भी नहीं – इस दुनिया में बेकार ही पैदा हुआ वह और बरबाद हो गया ।

(26)

कबीर प्रेम न चषिया, चषि न लीया साव ।
सूने घर का पाहुंणां , ज्यूं आया त्यूं जाव ॥6॥

भावार्थ : कबीर धिक्कारते हुए कहते हैं – जिसने प्रेम का रस नहीं चखा, और चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाय ? वह तो सूने घर का मेहमान है, जैसे आया था वैसे ही चला गया !

(27)

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्यां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप ॥7॥

भावार्थ : प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है, उसे क्या कहा जाय ? वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना कोई गति नहीं ।

(28)

लूटि सकै तौ लूटियौ, राम-नाम है लूटि ।
पीछैं हो पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि ॥8॥

भावार्थ : अगर लूट सको तो लूट लो, जी भर लूटो–यह राम नाम की लूट है । न लूटोगे तो बुरी तरह पछताओगे, क्योंकि तब यह तन छूट जायगा ।

(29)

लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 9॥

भावार्थ : रास्ता लम्बा है, और वह घर दूर है, जहाँ कि पहुँचना है । लम्बा ही नहीं, उबड़-खाबड़ भी है । कितने ही बटमार वहाँ पीछे लग जाते हैं । संत भाइयों, बताओ तो कि हरि का वह दुर्लभ दीदार तब कैसे मिल सकता है ?

(30)

कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥10॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं- अमृत-जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा ले । राम से तेरा मन-बिछुड़ गया है, उससे वैसे ही मिल जा , जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्धि-से-सन्धि मिलाकर एक कर लिया जाता है ।

(31)

अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां ।

कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ॥1॥

भावार्थ : संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं, अन्तर की कसक दूर होने की नहीं, यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हाँ यह अंदेशा दूर हो सकता है दो तरह से – या तो हरि स्वयं आजायं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊँ

(32)

यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं ॥2॥

भावार्थ : इस तन को जलाकर स्याही बना लूँगी, और जो कंकाल रह जायगा, उसकी लेखनी तैयार कर लूँगी । उससे प्रेम की पाती लिख-लिखकर अपने प्यारे राम को भेजती रहूँगी । ऐसे होंगे वे मेरे संदेसे ।

कबीर दास के दोहे

(33)

बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ ॥3॥

भावार्थ : बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है, डसता ही रहता है सदा, कोई भी मंत्र काम नहीं देता । राम का वियोगी जीवित नहीं रहता , और जीवित रह भी जाय तो वह बावला हो जाता है ।

(34)

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥4॥

भावार्थ : शरीर यह रबाब सरोद बन गया है -एक-एक नस तांत हो गयी है । और बजानेवाला कौन है इसका ? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता है, या फिर बिरह में डूबा हुआ; यह चित्त ।

(35)

अंषड़ियां झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़िंयाँ छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकारि ॥5॥

भावार्थ : बाट जोहते-जोहते आंखों में झाईं पड़ गई हैं, राम को पुकारते-पुकारते जीभ में छाले पड़ गये हैं। [ पुकार यह आर्त्त न होकर विरह के कारण तप्त हो गयी है..और इसीलिए जीभ पर छाले पड़ गये हैं ।

(36)

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव ।
लोही सींची तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव ॥6॥

भावार्थ : इस तन का दीया बना लूं, जिसमें प्राणों की बत्ती हो ! और,तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे रक्त का एक-एक कण । कितना अच्छा कि उस दीये में प्रियतम का मुखड़ा कभी दिखायी दे जाय ।

(37)

कबीर हँसणां दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त ॥7॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसीको मिल सकता है ? [रोने-रोने में अन्तर है । दुनिया को किसी चीज के लिए रोना, जो नहीं मिलती या मिलने पर खो जाती है, और राम के विरह का रोना, जो सुखदायक होता है।]

(38)

जौ रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥8॥

भावार्थ : अगर रोता हूँ तो बल घट जाता है, विरह तब कैसे सहन होगा ? और हँसता हूं तो मेरे राम रिसा जायंगे । तो न रोते बनता है और न हँसते। मन-ही-मन बिसूरना ही अच्छा, जिससे सबकुछ खौखला हो जाय, जैसे काठ घुन लग जाने से ।

(39)

हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णां तजै, तोहि मिलै भगवान ॥9॥

भावार्थ – हँसी-खेल में ही हरि से मिलन हो जाय,तो कौन व्यथा की शान पर चढ़ना चाहेगा भगवान तो तभी मिलते हैं, जबकि काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिया जाय ।

(40)

पूत पियारौ पिता कौं, गौंहनि लागो धाइ ।
लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो भुलाइ ॥10॥

भावार्थ : पिता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया । हाथ में लोभ की मिठाई देदी पिता ने । उस मिठाई में ही रम गया उसका मन । अपने-आपको वह भूल गया, पिता का साथ छूट गया ।

(41)

परबति परबति मैं फिर्‌या, नैन गँवाये रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥11॥

भावार्थ : एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो-रोकर आँखे भी गवां दीं । वह संजीवन बूटी कहीं नहीं मिल रही, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय, व्यर्थता बदल जाय सार्थकता में ।

(42)

सुखिया सब संसार है, खावै और सौवे ।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रौवे ॥12॥

भावार्थ : सारा ही संसार सुखी दीख रहा है, अपने आपमें मस्त है वह, खूब खाता है और खूब सोता है ।दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है । [धन्य है ऐसा जागना, ओर ऐसा रोना !किस काम का,इसके आगे खूब खाना और खूब सोना!]

(43)

जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥13॥

भावार्थ : जीवात्मा कहती है – जिस कारण मैं उसे इतने दिनों से ढूँढ़ रही थी, वह सहज ही मिल गया, सामने ही तो था । पर उसके पैरों को कैसे पकड़ू ? मैं तो मैली हूँ, और मेरा प्रियतम कितना उजला ! सो, संकोच हो रहा है ।

(44)

जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं ।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं ॥14॥

भावार्थ : जबतक यह मानता था कि मैं हूं , तबतक मेरे सामने हरि नहीं थे । और अब हरि आ प्रगटे, तो मैं नहीं रहा । अँधेरा और उजेला एकसाथ, एक ही समय, कैसे रह सकते हैं ? फिर वह दीपक तो अन्तर में ही था ।

कबीर दास के दोहे

(45)

देवल माहैं देहुरी, तिल जे है बिसतार ।
माहैं पाती माहिं जल, माहैं पूजणहार ॥15॥

भावार्थ : मन्दिर के अन्दर ही देहरी है एक, विस्तार में तिल के मानिन्द । वहीं पर पत्ते और फूल चढ़ाने को रखे हैं, और पूजनेवाला भी तो वहीं पर हैं । [अन्तरात्मा में ही मंदिर है, वहीं पर देवता है, वहीं पूजा की सामग्री है और पुजारी भी वहीं मौजूद है ।

(46)

भारी कहौं तो बहु डरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणौं राम कूं, नैनूं कबहूँ न दीठ ॥1॥

भावार्थ : अपने राम को मैं यदि भारी कहता हूँ, तो डर लगता है, इसलिए कि कितना भारी है वह । और, उसे हलका कहता हूँ तो यह झूठ होगा । मैं क्या जानूँ उसे कि वह कैसा है, इन आँखों से तो उसे कभी देखा नहीं ।सचमुच वह अनिर्वचनीय है, वाणी की पहुँच नहीं उस तक ।

(47)

दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाय ।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरषि-हरषि गुण गाइ ॥2॥

भावार्थ : उसे यदि देखा भी है, तो वर्णन कैसे करूँ उसका ? वर्णन करता हूँ तो कौन विश्वास करेगा ? हरि जैसा है, वैसा है । तू तो आनन्द में मग्न होकर उसके गुण गाता रह वर्णन के ऊहापोह में मन को न पड़ने दे ।

(48)

पहुँचेंगे तब कहैंगे ,उमड़ैंगे उस ठांइ ।
अजहूँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचैं कांइ ॥3॥

भावार्थ : जब उस ठौर पर पहुँच जायंगे, तब देखेंगे कि क्या कहना है, अभी तो इतना ही कि वहाँ आनन्द-ही-आनन्द उमड़ेगा, और उसमें यह मन खूब खेलेगा। जबकि बेड़ा बीच समुद्र में है, तब व्यर्थ बोल-बोलकर क्यों किसी को दुविधा में डाला जाय कि – -उस पार हम पहुँच गये हैं !

(49)

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर ॥1॥

भावार्थ : मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं,जो कुछ भी है, वह सब तेरा ही । तब, तेरी ही वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता है, क्या आपत्ति हो सकती है मुझे ?

(50

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ॥2॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, जबकि उनमें सिन्दूर की जैसी रेख उभर आयी है ?मेरा रमैया नैनों में रम गया है, उनमें अब किसी और को बसा लेने की ठौर नहीं रही। [सिन्दूर की रेख से आशय है विरह-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल हो गयी हैं।]

(51)

कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जांण्या क्या होइ ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – यदि उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ ! क्योंकि एक का ही तो यह सारा पसारा है, अनेक से एक थोड़े ही बना है ।

(52)

जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव ॥4॥

भावार्थ : भक्ति जबतक सकाम है, भगवान की सारी सेवा तबतक निष्फल ही है । निष्कामी देव से सकामी साधक की. भेंट कैसे हो सकती है ?

(53)

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥5॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया, क्योंकि (नकली) मित्रों की कोई कमी नहीं । पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया, वे ही निश्चिन्त सुख की नींद सो सकते हैं ।

(54)

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं ॥6॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं–मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया (मोती) है गले में राम की जंजीर पड़ी हुई है; उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। [प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है ।]

(55)

पतिबरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।
पतिबरता के रूप पर, बारौं कोटि स्वरूप ॥7॥

भावार्थ : पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी पहने हुए और कुरूप । तो भी उसके रूप पर मैं करोंड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूँ ।

(56)

पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत ॥8॥

भावार्थ : पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग के नाम पर काँच के कुछ गुरिये पहन रखे हैं । फिर भी अपनी सखी-सहेलियों के बीच वह ऐसी दिप रही है, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्र की ज्योति जगमगा रही हो ।

(57)

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं ॥1॥

भावार्थ : परनारी से जो प्रीति जोड़ते हैं और चोरी की कमाई खाते हैं, भले ही वे चार दिन फूले-फूले फिरें ।किन्तु अन्त में वे जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं ।

(58)

परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि ।
खूणैं बैसि र खाइए, परगट होइ दिवानि ॥2॥

भावार्थ – परनारी का साथ लहसुन खाने के जैसा है, भले ही कोई किसी कोने में छिपकर खाये, वह अपनी बास से प्रकट हो जाता है ।

(59

भगति बिगाड़ी कामियाँ, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥3॥

भावार्थ : भक्ति को कामी लोगों ने बिगाड़ डाला है, इन्द्रियों के स्वाद में पड़कर, और हाथ से हीरा गिरा दिया, गँवा दिया । जन्म लेना बेकार ही रहा उनका ।

(60)

कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि ।
कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि ॥4॥

भावार्थ : कामी मनुष्य को अमृत पसंद नहीं आता, वह तो जगह-जगह विष को ही खोजता रहता है । कामी जीव की कुबुद्धि जाती नहीं, चाहे स्वयं शम्भु भगवान् ही उपदेश दे-देकर उसे समझावें ।

कबीर के दोहे कक्षा 12 के लिए

(61)

कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ॥5॥

भावार्थ : कामी मनुष्य को लज्जा नहीं आती कुमार्ग पर पैर रखते हुए, मन में बड़ा आह्लाद होता है उसे । नींद लगने पर यह नहीं देखा जाता कि बिस्तरा कैसा है, और भूखा मनुष्य स्वाद नहीं जानता, चाहे जो खा लेता है ।

(62)

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता ।
ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता ॥6॥

भावार्थ : ज्ञानी ने अहंकार में पड़कर अपना मूल भी गवाँ दिया,वह मानने लगा कि मैं ही सबका कर्ता-धर्त्ता हूँ ।उससे तो संसारी आदमी ही अच्छा, क्योंकि वह डरकर तो चलता है कि कहीं कोई भूल न हो जाय ।

(63)

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥1॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा । [कलाल है सद्गुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार ।]

(64)

कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥2॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – हरि का प्रेम-रस ऐसा छककर पी लिया कि कोई और रस पीना बाकी नहीं रहा ।कुम्हार का बनाया जो घड़ा पक गया, वह दोबारा उसके चाक पर नहीं चढ़ता । [मतलब यह कि सिद्ध हो जाने पर साधक पार कर जाता है जन्म और मरण के चक्र को।]

(65)

हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैंमंता घूमत रहै, नाहीं तन की सार ॥3॥

भावार्थ : हरि का प्रेम-रस पी लिया, इसकी यही पहचान है कि वह नशा अब उतरने का नहीं, चढ़ा सो चढ़ा । अपनापन खोकर मस्ती में ऐसे घूमना कि शरीर का भी मान न रहे ।

(66)

सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होई ॥4॥

भावार्थ : सभी रसायनों का सेवन कर लिया मैंने, मगर हरि-रस-जैसी कोई और रसायन नहीं पायी । एक तिल भी घट में, शरीर में, यह पहुँच जाय, तो वह सारा ही कंचन में बदल जाता है । [मैल जल जाता है वासनाओं का, और जीवन अत्यंत निर्मल हो जाता है ।]

(67)

कबीर माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥1॥

भावार्थ : यह पापिन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी है । बहुत सारों पर फंन्दा डाल दिया है इसने ।पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया हरि भक्त पर फंन्दा डालनेवाली माया खुद ही फँस जाती है, और वह सहज ही उसे काट कर निकल आता है ।]

(68)

कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड ॥2॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -यह मोहिनी माया शक्कर-सी स्वाद में मीठी लगती है, मुझ पर भी यह मोहिनी डाल देती पर न डाल सकी । सतगुरु की कृपा ने बचा लिया, नहीं तो यह मुझे भांड़ बना-कर छोड़ती । जहाँ-तहाँ चाहे जिसकी चाटुकारी मैं करता फिरता ।

(69)

माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया कबीर ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं –न तो यह माया मरी और न मन ही मरा, शरीर ही बार-बार गिरते चले गये ।मैं हाथ उठाकर कहता हूँ । न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा का ही ।

(70

कबीर सो धन संचिये, जो आगैं कूं होइ ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥4॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं,–उसी धन का संचय करो न, जो आगे काम दे । तुम्हारे इस धन में क्या रखा है ? गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आजतक ले जाते नहीं देखा ।

(71)

त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥5॥

भावार्थ :  कैसी आग है यह तृष्णा की !ज्यौं-ज्यौं इसपर पानी डालो, बढ़ती ही जाती है ।
जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला तो जाता है, पर मरता नहीं, फिर हरा हो जाता है ।

(72)

कबीर जग की को कहै, भौजलि, बुड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करैं मानि की आस ॥6॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं– दुनिया के लोगों की बात कौन कहे, भगवान के भक्त भी भवसागर में डूब जाते हैं । इसीलिए परब्रह्म स्वामी को छोड़कर वे दूसरों से मान-सम्मान पाने की आशा करते हैं।

(73)

माया तजी तौ क्या भया, मानि तजी नहीं जाइ ।
मानि बड़े मुनियर गिले, मानि सबनि को खाइ ॥7॥

भावार्थ : क्या हुआ जो माया को छोड़ दिया, मान-प्रतिष्ठा तो छोड़ी नहीं जा रही । बड़े-बड़े मुनियों को भी यह मान-सम्मान सहज ही निगल गया । यह सबको चबा जाता है, कोई इससे बचा नहीं ।

(74)

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि घरि जिता बधावणा, तिहिं घरि तिता अंदोह ॥8॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं — झूठा है संसार का सारा माया और मोह । सनातन नियम यह है कि – जिस घर में जितनी ही बधाइयाँ बजती हैं, उतनी ही विपदाएँ वहाँ आती हैं ।

(75)

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ्‌या कलंक ।
और पखेरू पी गये , हंस न बोवे चंच ॥9॥

भावार्थ : बगुली ने चोंच डुबोकर सागर का पानी जूठा कर डाला ! सागर सारा ही कलंकित हो गया उससे ।और दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गये, पर हंस ही ऐसा था, जिसने अपनी चोंच उसमें नहीं डुबोई ।

(76)

कबीर माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह ।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह ॥10॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाये, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं । जबकि नारद-सरीखे मुनिवरों को यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या ?

(77)

लेखा देणां सोहरा, जे दिल सांचा होइ ।
उस चंगे दीवान में, पला न पकड़ै कोइ ॥1॥

भावार्थ : दिल तेरा अगर सच्चा है, तो लेना-देना सारा आसान हो जायगा । उलझन तो झूठे हिसाब-किताब में आ पड़ती है, जब साईं के दरबार में पहुँचेगा, तो वहाँ कोई तेरा पल्ला नहीं पकड़ेगा , क्योंकि सब कुछ तेरा साफ-ही-साफ होगा ।

(78)

साँच कहूं तो मारिहैं, झूठे जग पतियाइ ।
यह जग काली कूकरी, जो छेड़ै तो खाय ॥2॥

भावार्थ : सच-सच कह देता हूँ तो लोग मारने दौड़ेंगे, दुनिया तो झूठ पर ही विश्वास करती है । लगता है, दुनिया जैसे काली कुतिया है, इसे छेड़ दिया, तो यह काट खायेगी ।

(79)

यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज ।
सांचै मारे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज ॥3॥

भावार्थ : काजी भाई ! तेरी पाँच बार की यह नमाज झूठी बन्दगी है, झूठी पढ़-पढ़कर तुम सत्य का गला घोंट रहे हो , और इससे दुनिया की और अपनी भी हानि कर रहे हो ।[क्यों नहीं पाक दिल से सच्ची बन्दगी करते हो ?]

(80

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जिस हिरदे में सांच है, ता हिरदै हरि आप ॥4॥

भावार्थ : सत्य की तुलना में दूसरा कोई तप नहीं, और झूठ के बराबर दूसरा पाप नहीं ।जिसके हृदय में सत्य रम गया, वहाँ हरि का वास तो सदा रहेगा ही ।

(81)

प्रेम-प्रीति का चोलना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहूँ, जो कोइ बोलै सांच ॥5॥

भावार्थ : प्रेम और प्रीति का ढीला-ढाला कुर्ता पहनकर कबीर मस्ती में नाच रहा है, और उसपर तन और मन की न्यौछावर कर रहा है, जो दिल से सदा सच ही बोलता है।

(82)

काजी मुल्लां भ्रंमियां, चल्या दुनीं कै साथ ।
दिल थैं दीन बिसारिया, करद लई जब हाथ ॥6॥

भावार्थ : ये काजी और मुल्ले तभी दीन के रास्ते से भटक गये और दुनियादारों के साथ-साथ चलने लगे, जब कि इन्होंने जिबह करने के लिए हाथ में छुरी पकड़ ली दीन के नाम पर।

(83)

साईं सेती चोरियां, चोरां सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवणा, मार पड़ैगी तुझ ॥7॥

भावार्थ : वाह ! क्या कहने हैं, साईं से तो तू चोरी और दुराव करता है और दोस्ती कर ली है चोरों के साथ ! जब उस दरबार में तुझ पर मार पड़ेगी, तभी तू असलियत को समझ सकेगा ।

(84)

खूब खांड है खीचड़ी, माहि पड्याँ टुक लूण ।
पेड़ा रोटी खाइ करि, गल कटावे कूण ॥8॥

भावार्थ : क्या ही बढ़िया स्वाद है मेरी इस खिचड़ी का ! जरा-सा, बस, नमक डाल लिया है पेड़े और चुपड़ी रोटियाँ खा-खाकर कौन अपना गला कटाये ?

(85)

जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि ।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥1॥

भावार्थ : उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं । पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं । [सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये ।

(86)

उज्ज्वल देखि न धीजिये, बग ज्यूं मांडै ध्यान ।
धौरे बैठि चपेटसी, यूं ले बूड़ै ग्यान ॥2॥

भावार्थ : ऊपर-ऊपर की उज्ज्वलता को देखकर न भूल जाओ, उस पर विश्वास न करो । उज्ज्वल पंखों वाला बगुला ध्यान लगाये बैठा है, कोई भी जीव-जन्तु पास गया, तो उसकी चपेट से छूटने का नहीं ।[दम्भी का दिया ज्ञान भी मंझधार में डुबो देगा ।]

(87)

कबीर संगत साध की, कदे न निरफल होइ ।
चंदन होसी बांवना,नींब न कहसी कोइ ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – साधु की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, उससे सुफल मिलता ही है । चन्दन का वृक्ष बावना अर्थात् छोटा-सा होता है, पर उसे कोई नीम नहीं कहता, यद्यपि वह कहीं अधिक बड़ा होता है ।

(88)

कबीर संगति साध की, बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ ॥4॥

भावार्थ : साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा । तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी ।

(89)

मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ ॥5॥

भावार्थ : तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं ।

(90)

मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम ॥6॥

भावार्थ : मेरे तो ये दो ही संगी साथी हैं – एक तो वैष्णव, और दूसरा राम । राम जहाँ मुक्ति का दाता है, वहाँ वैष्णव नाम-स्मरण कराता है । तब और किसी साथी से मुझे क्या लेना-देना ?

(91)

कबीर बन बन में फिरा, कारणि अपणैं राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सबरे काम ॥7॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – अपने राम को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक बन में से मैं दूसरे बन में गया, जब वहाँ मुझे स्वयं राम के सरीखे भक्त मिल गये, तो उहोंने मेरे सारे काम बना दिये । मेरा वन वन का भटकना तभी सफल हुआ ।

कबीर के दोहे अर्थ सहित

(92)

जानि बूझि सांचहि तजै, करैं झूठ सूं नेहु ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनें ही जिनि देहु ॥8॥

भावार्थ : जो मनुष्य जान-बूझकर सत्य को छोड़ देता है, और असत्य से नाता जोड़ लेता है । हे राम! सपने में भी कभी मुझे उसका साथ न देना ।

(93)

कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजन को सहै ॥9॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – मेरे साईं, मुझे तू किसी ऐसे से मिला दे, जिसके हृदय में तू बस रहा हो, नहीं तो दुनिया से मुझे जल्दी ही उठा ले ।रोज-रोज की यह पीड़ा कौन सहे ?

(94)

हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत ॥1॥

भावार्थ : हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना – ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं ।

(95)

मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥2॥

भावार्थ : मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी फलित होने का नहीं । लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता है ? वर्षा की बूँद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी – परिणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और विष बना ।

(96)

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥3॥

भावार्थ : मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से लिपट गये ।मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई।

(97)

ऊँचे कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊँच न होइ ।
सोवरन कलस सुरै भर्‌या, साधू निंदा सोइ ॥4॥

भावार्थ : ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या होता है, यदि करनी ऊँची न हुई ? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदरा भरी हो ।

(98)

कबिरा खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥5॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी ? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र !

(99)

कबीर तन पंषो भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥6॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – यह तन मानो पक्षी हो गया है, मन इसे चाहे जहाँ उड़ा ले जाता है । जिसे जैसी भी संगति मिलती है- संग और कुसंग – वह वैसा ही फल भोगता है । [ मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति मे ले जाकर वैसे ही फल देता है ।]

(100)

काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार ॥7॥

भावार्थ : यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी । धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है ।

(101)

कबीर मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ ।
बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥1॥

भावार्थ : इस मन को मैं ऐसा मारूँगा कि वह टूक-टूक हो जाय । मन की ही करतूत है यह, जो जीवन की क्यारी में विष के बीज मैंने बो दिये , उन फलों को तब लेना ही होगा, चाहे कितना ही पछताया जाय ।

(102)

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरि फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥2॥

भावार्थ : आशा को जला देता हूँ ईंधन की तरह, और उस राख को तन पर रमाकर जोगी बन जाता हूँ । फिर जहाँ-जहाँ फेरी लगाता फिरूँगा, जो सूत इक्ट्ठा कर लिया है उसे इसी तरह बुनूँगा । [मतलब यह कि आशाएँ सारी जलाकर खाक कर दूँगा और निस्पृह होकर जीवन का क्रम इसी ताने-बाने पर चलाऊँगा ।]

(103)

पाणी ही तै पातला, धुवां ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोसत कबीर कीन्ह ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि ऐसे के साथ दोस्ती करली है मैंने जो पानी से भी पतला है और धुएं से भी ज्यादा झीना है । पर वेग और चंचलता उसकी पवन से भी कहीं अधिक है । [पूरी तरह काबू में किया हुआ मन ही ऐसा दोस्त है ।]

(104)

कबीर तुरी पलाणियां, चाबक लीया हाथि ।
दिवस थकां सांई मिलौं, पीछै पड़िहै राति ॥4॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -ऐसे घोड़े पर जीन कस ली है मैंने, और हाथ में ले लिया है चाबुक, कि सांझ पड़ने से पहले ही अपने स्वामी से जा मिलूँ । बाद में तो रात हो जायगी , और मंजिल तक नहीं पहुँच सकूँगा ।

(105)

मैमन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहिं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥5॥

भावार्थ : मद-मत्त हाथी को, जो कि मन है, घर में ही घेरकर कुचल दो ।अगर यह पीछे को पैर उठाये, तो अंकुश दे-देकर इसे मोड़ लो ।

(106)

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥6॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं –नाव यह कागज की है, और गंगा में पानी-ही-पानी भरा है । फिर साथ पाँच कुसंगियों का है, कैसे पार जा सकूँगा ? [ पाँच कुसंगियों से तात्पर्य है पाँच चंचल इन्द्रियों से ।]

(107)

मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥7॥

भावार्थ : अरे मन ! अपने मनोरथों को तू छोड़ दे, तेरा किया कुछ होने-जाने का नहीं । यदि पानी में से ही घी निकलने लगे, तो कौन रूखी रोटी खायगा ? [मतलब यह कि मन तो पानी की तरह है, और घी से तात्पर्य है आत्म-दर्शन ।]

(108)

कबीर नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥1॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं– अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम । फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, बिगड़ी बात को बना लेने का,

(109)

जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥2॥

भावार्थ – पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर, और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे । वे अपने जीवन की बाजी हार गये । इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया।

(110)

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़ै बिछोह ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥3॥

भावार्थ : एक दिन ऐसा आयगा ही, जब सबसे बिछुड़ जाना होगा । तब ये बड़े-बड़े राजा और छत्र-धारी राणा क्यों सचेत नहीं हो जाते ? कभी-न-कभी अचानक आ जाने वाले उस दिन को वे क्यों याद नहीं कर रहे ?

(111)

कबीर कहा गरबियौ, काल गहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस ॥4॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -यह गर्व कैसा,जबकि काल ने तुम्हारी चोटी को पकड़ रखा है? कौन जाने वह तुम्हें कहाँ और कब मार देगा ! पता नहीं कि तुम्हारे घर में ही, या कहीं परदेश में ।

(112)

बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरे, चेति सकै तो चेति ॥5॥

भावार्थ : खेत एकदम खुला पड़ा है, रखवाला कोई भी नहीं । चिड़ियों ने बहुत कुछ उसे चुग लिया है । चेत सके तो अब भी चेत जा, जाग जा , जिससे कि आधा-परधा जो भी रह गया हो, वह बच जाय ।

पाखंड पर कबीर के दोहे जो देंगे

(113)

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥6॥

भावार्थ : हमने यहाँ आकर क्या किया ? और साईं के दरबार में जाकर क्या कहेंगे ? न तो यहाँ के हुए और न वहाँ के ही – दोनों ही ठौर बिगाड़ बैठे । मूल भी गवाँकर इस बाजार से अब हम बिदा ले रहे हैं ।

(114)

कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़े ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूं, घणी सहै सिर चोट ॥7॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं, चेतावनी देते हुए – राम की ओट को तू मत छोड़, केवल यही तो एक ओट है । इसे छोड़ दिया तो तेरी वही गति होगी, जो लोहे की होती है , हथौड़े और निहाई के बीच आकर तेरे सिर पर चोट-पर-चोट पड़ेगी । उन चोटों से यह ओट ही तुझे बचा सकती है ।

(115)

उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥8॥

भावार्थ : बढ़िया उजले कपड़े उन्होंने पहन रखे हैं, और पान-सुपारी खाकर मुँह लाल कर लिया है अपना । पर यह साज-सिंगार अन्त में बचा नहीं सकेगा, जबकि यमदूत बाँधकर ले जायंगे । उस दिन केवल हरि का नाम ही यम-बंधन से छुड़ा सकेगा ।

(116)

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिकाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेड़ा आइ ॥9॥

भावार्थ : खूब चित्त लगाकर महीन-से-महीन सूत तू चरखे पर कात, वह बड़े महँगे मोल बिकेगा । लेकिन उसका गाहक तो केवल राम है , कोई दूसरा उसका खरीदार पास फटकने का नहीं ।

(117)

मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि ॥10॥

भावार्थ : यह मैं -मैं बहुत बड़ी बला है । इससे निकलकर भाग सको तो भाग जाओ । अरी सखी, रुई में आग को लपेटकर तू कबतक रख सकेगी ? [राग की आग को चतुराई से ढककर भी छिपाया और बुझाया नहीं जा सकता ।]

(118)

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥

भावार्थ : कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम ।और विषय-वासनाओं में निर्लेपता ।

(119)

संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत ।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत ॥2॥

भावार्थ : करोड़ों ही असन्त आजायं, तोभी सन्त अपना सन्तपना नहीं छोड़ता । चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तोभी वह शीतलता को नहीं छोड़ता ।

(120

गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि हम ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चाहते हैं, जो गाँठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता और नारी से जिसका प्रेम नहीं ।

(121)

सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात ॥4॥

भावार्थ : सिंहों के झुण्ड नहीं हुआ करते और न हंसों की कतारें । लाल-रत्न बोरियों में नहीं भरे जाते, और जमात को साथ लेकर साधु नहिं चला करते ।

(122)

जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान ।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥5॥

भावार्थ : क्या पूछते हो कि साधु किस जाति का है?पूछना हो तो उससे ज्ञान की बात पूछोतलवार खरीदनी है, तो उसकी धार पर चढ़े पानी को देखो, उसके म्यान को फेंक दो, भले ही वह बहुमूल्य हो ।

(123)

कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर तास ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥6॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -हरि के प्यारे का शरीर तो देखो-पंजर ही रह गया है बाकी । सारी ही रात उसे नींद नहीं आती, और अंग पर मांस नहीं चढ़ रहा ।

(124)

राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होइ ॥7॥

भावार्थ : पूछते हो कि राम का वियोग होता कैसा है ?विरह में वह व्यथित रहता है, देखकर कोई पहचान नहीं पाता कि वह कौन है ?तम्बोली के पान की तरह, बिना सींचे, दिन-दिन वह पीला पड़ता जाता है ।

(125)

काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकी सुखदेव बोलै साखि ॥8॥

भावार्थ : हाँ,राम से काम भी मिला सकता है -ऐसा काम, जिसे कि नियंत्रण में रखा जाय। यह बात बेचारा कबीर ही नहीं कह रहा है, शुकदेव मुनि भी साक्षी भर रहे हैं । [ आशय धर्म से अविरुद्ध काम से है, अर्थात् भोग के प्रति अनासक्ति और उसपर नियंत्रण ।]

(126)

जिहिं हिरदे हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥9॥

भावार्थ : जिसके अन्तर में हरि आ बसा, उसके प्रेम को कैसे छिपाया जा सकता है ? दीपक को जतन कर-कर कितना ही छिपाओ, तब भी उसका उजेला तो प्रकट हो ही जायगा।[रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में चिमनी के अन्दर से फानुस का प्रकाश छिपा नहीं रह सकता ।]

(127)

फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ ।
जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ ॥10॥

भावार्थ : कबसे मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा हूँ कि ऐसा कोई मिल जाय, जिसे मेरे साईं का दीदार हुआ हो । वह किसी भी तरह छिपा नहीं रह जायगा, नजर पर चढ़े तो !

(128)

पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ ॥11॥

भावार्थ : मेरा राम तो आग के सदृश है, जो घट-घट में समा रहा है । वह प्रकट तभी होगा, जब कि चित्त उसपर केन्द्रित हो जायगा । चकमक पत्थर की रगड़ बैठ नहीं रही, इससे केवल धुँवा उठ रहा है । तो आग अब कैसे प्रकटे ?

(129)

कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोइ ।
कै जगै बिषई विष-भर्‌या, कै दास बंदगी होइ ॥12॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -जाग रहा है, तो मेरा वह खालिक ही, दुनिया तो गहरी नींद में सो रही है, कोई भी नहीं जाग रहा । हाँ, ये दो ही जागते हैं – या तो विषय के जहर में डूबा हुआ कोई, या फिर साईं का बन्दा, जिसकी सारी रात बंदगी करते- करते बीत जाती है ।

(130

पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ ।
राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ ॥13॥

भावार्थ : मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान ही हैं, जिनमें राम के स्नेही नहीं बस रहे, यद्यपि उनको बड़े सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया है और जगह-जगह जहाँ आनन्द-उत्सव हो रहे हैं ।

(131)

जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं ॥14॥

भावार्थ : जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट है, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं ।

(132)

हैवर गैवर सघन धन, छत्रपति की नारि ।
तास पटंतर ना तूलै, हरिजन की पनिहारि ॥15॥

भावार्थ : हरि-भक्त की पनिहारिन की बराबरी छत्रधारी की रानी भी नहीं कर सकती । ऐसे राजा की रानी,जो अच्छे-से-अच्छे घोड़ों और हाथियों का स्वामी है, और जिसका खजाना अपार धन-सम्पदा से भरा पड़ा है ।

(133)

क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान ।
वा मांग संवारे पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम ॥26॥

भावार्थ : रानी को यह नीचा स्थान क्यों दिया गया, और पनिहारिन को इतना ऊँचा स्थान ? इसलिए कि रानी तो अपने राजा को रिझाने के लिए मांग सँवारती है, सिंगार करती है और वह पनिहारिन नित्य उठकर अपने राम का सुमिरन ।

(134)

कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास ॥27॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं– कुल तो वही श्रेष्ठ है, जिसमें हरि-भक्त जन्म लेता है । जिस कुल में हरि-भक्त नहीं जनमता, वह कुल आक और पलास के समान व्यर्थ है ।

(135)

रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥1॥

भावार्थ : क्या रोता फिरता है खाने के लिए ? अपने सरजनहार को पहचान ले न ! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा ।

(136)

भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग ॥2॥

भावार्थ : अरे,द्वार-द्वार पर क्या चिल्लाता फिरता है किमैं भूखा हूँ,मैं भूखा हूँ?भांडा गढ़कर जिसने उसका मुँह बनाया, वही उसे भरेगा, रीता नहीं रखेगा ।

(137)

कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अणच्यंत्या हरिजी करैं, जो तोहि च्यंत न होइ ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – क्यों व्यर्थ चिंता कर रहा है? चिंता करने से क्या होगा? जिस बात को तूने कभी सोचा नहीं, जिसकी चिंता नहीं की, उस अ-चिंतित को भी तेरा साईं पूरा कर देगा ।

(138)

संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ ।
साईं सूँ सनमुख रहै, जहाँ मांगै तहां देइ ॥4॥

भावार्थ : संचय करके संत कभी गठरी नहीं बाँधता । उतना ही लेता है, जितने की दरकार पेट को हो । साईं ! तू तो सामने खड़ा है, जो भी जहाँ माँगूँगा, वह तू वहीं दे देगा ।

(139)

मानि महातम प्रेम-रस, गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह ॥5॥

भावार्थ : जब भी किसी ने किसी से कहा कि कुछ दे दो, समझलो कि तब न तो उसका सम्मान रहा, न बड़ाई, न प्रेम-रस , और न गौरव, और न कोई गुण और न स्नेह ही ।

(140)

मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावै मोहि ॥6॥

भावार्थ : कबीर रघुनाथजी से प्रार्थना करता है कि,मुझे किसीसे कभी कुछ माँगना न पड़े क्योंकि माँगना मरण के समान है, बिरला ही कोई इससे बचा है ।

(141)

कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ ॥7॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – सारे संसार में एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर का चक्कर मैं काटता फिरा , बहुत भटका कंधे पर कांवड़ रखकर पूजा की सामग्री के साथ । सारे देवी देवताओं को देख लिया, ठोकबजाकर परख लिया, पर हरि को छोड़कर ऐसा कोई नहीं मिला, जिसे मैं अपना कह सकूं ।

(142)

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव ।
खेत बुहार्‌या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव ॥1॥

भावार्थ : गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी । शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है । 

(143)

कबीर सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥2॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है । [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना ।]

(144)

कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत ॥3॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं — मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई । इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में ।

(145)

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत ।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत ॥4॥

भावार्थ : शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है । पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता ।

(146)

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर ।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर ॥5॥

भावार्थ : अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है । साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं ।

(147)

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद ॥6॥

भावार्थ : जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को !

(148)

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर ।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर ॥7॥

भावार्थ : बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं । यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है ।

(149)

कबीर यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं ॥8॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले । [ सीस अर्थात अहंकार । पाठान्तर है भुइं धरै । यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है । सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है ।

(150

कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध ।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥9॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है । मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा । प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय ।

(151)

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ ॥10॥

भावार्थ : अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी – यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है ।

(152)

कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥11॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं – क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने ।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर । तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है ।

(153)

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ ॥12॥

भावार्थ : मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं ।

(154)

सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥13॥

भावार्थ : सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए । जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए । सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है ।

(155)

कबीर हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ ॥14॥

भावार्थ : कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता । प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है ।

(156)

माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

भावार्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है । यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है ।

कबीर की साखियाँ – कबीर 

कस्तूरी कुँडली बसै, मृग ढूँढे बन माहिँ।
 ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ॥

 प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय॥

 माला फेरत जुग भया, मिटा ना मन का फेर।
 कर का मन का छाड़ि के, मन का मनका फेर॥

 माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया सरीर।
 आसा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर॥

 झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
 खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥

 वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर॥

 साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय।
 तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय॥

 सोना, सज्जन, साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धकै दरार॥

 जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं॥

 मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ।
 कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥

 तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय।
कबहुँ उड़न आँखन परै, पीर घनेरी होय॥

 बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि॥

 ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय॥

 लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।
चींटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी॥

 निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

 मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं॥

कथनी-करणी का अंग – कबीर 

जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।
 पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥

 पद गाए मन हरषियां, साँखी कह्यां अनंद।
 सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद॥

 मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग।
 राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग॥

 कबीर पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाई।
 बावन आखर सोधि करि, ररै ममै चित्त लाई॥

 पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
 ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

 करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तुंड।
 जानें-बूझै कुछ नहीं, यौं हीं आंधा रूंड॥

चांणक का अंग – कबीर 

इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम।
 स्वामीं-पणो जो सिरि चढ्यो, सर्‌यो न एको काम॥1॥

स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास।
 रामनाम कांठै रह्या, करै सिषां की आस॥2॥

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ।
 राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥3॥

कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
 दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ॥4॥

 कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
 लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥5॥

ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
 उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदां माहिं॥6॥

चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहिं।
 फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं॥7॥

तीरथ करि करि जग मुवा, डूँघै पाणीं न्हाइ।
 रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ॥8॥

 कबीर इस संसार कौं, समझाऊँ कै बार।
 पूँछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर्‌या चाहै पार॥9॥

 कबीर मन फूल्या फिरैं, करता हूँ मैं ध्रंम।
 कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम॥10॥

अवधूता युगन युगन हम योगी – कबीर 

अवधूता युगन युगन हम योगी,
आवै ना जाय मिटै ना कबहूं, सबद अनाहत भोगी।

 सभी ठौर जमात हमरी, सब ही ठौर पर मेला।
 हम सब माय, सब है हम माय, हम है बहुरी अकेला।

 हम ही सिद्ध समाधि हम ही, हम मौनी हम बोले।
 रूप सरूप अरूप दिखा के, हम ही हम तो खेलें।

 कहे कबीर जो सुनो भाई साधो, ना हीं न कोई इच्छा।
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं, खेलूं सहज स्वइच्छा।

समरथाई का अंग – कबीर 

जिसहि न कोई तिसहि तू, जिस तू तिस ब कोइ ।
 दरिगह तेरी सांईयां , ना मरूम कोइ होइ ॥1॥

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ ।
 धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ ॥2॥

अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ ।
अपना बाना वाहिया, कहि कहि थाके माइ ॥3॥

झल बावैं झल दाहिनैं, झलहि माहिं व्यौहार ।
 आगैं पीछैं झलमई, राखैं सिरजन हार ॥4॥

सांई मेरा बाणियां, सहजि करै ब्यौपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ैं, तोले सब संसार ॥5॥

साईं सूं सब होत है, बंदै तै कुछ नाहिं ।
राईं तै परबत करै, परबत राई माहिं ॥6॥

बहुरि नहिं आवना या देस -कबीर 
बहुरि नहिं आवना या देस ॥

 जो जो गए बहुरि नहि आए, 
पठवत नाहिं सेस ॥1॥

सुर नर मुनि अरु पीर औलिया, 
देवी देव गनेस ॥2॥

धरि धरि जनम सबै, 
भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस ॥3॥

जोगी जङ्गम औ संन्यासी, 
दीगंबर दरवेस ॥4॥

चुंडित, मुंडित पंडित लोई, 
सरग रसातल सेस ॥5॥

ज्ञानी, गुनी, चतुर अरु कविता, 
राजा रंक नरेस ॥6॥

कोइ राम कोइ रहिम बखानै, 
कोइ कहै आदेस ॥7॥

नाना भेष बनाय सबै, 

मिलि ढूऊंढि फिरें चहुँ देस ॥8॥

कहै कबीर अंत ना पैहो, 

बिन सतगुरु उपदेश ॥9॥

अंखियां तो झाईं परी – कबीर 

अंखियां तो झाईं परी,
पंथ निहारि निहारि।

 जीहड़ियां छाला परया,
नाम पुकारि पुकारि।

 बिरह कमन्डल कर लिये,
बैरागी दो नैन।

 मांगे दरस मधुकरी,
छकै रहै दिन रैन।

 सब रंग तांति रबाब तन,
बिरह बजावै नित।

 और न कोइ सुनि सकै,
कै सांई के चित।

कबीर के पद -कबीर 

1.

प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्‍यों आया त्‍यों जावैगा॥
 सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्‍या क्‍या बीता॥

 सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावैगा॥
 परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्‍यान न धरिया॥

 टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा॥
 दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई॥

 चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा॥

2.

रहना नहीं देस बिराना है॥
 यह संसार कागद की पुडि़या, बूँद पड़े घुल जाना है॥

 यह संसार काँटे की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है॥
 यह संसार झाड़ और झाँखर, आग लगे बरि जाना है॥

 कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है॥
जीवन-मृतक का अंग -कबीर 

 कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
 तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर ,कबीर ॥1॥

जीवन तै मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।
 मरनैं पहली जे मरै, तो कलि अजरावर होइ ॥2॥

आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥

 कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास ।
 कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यूं पाऊँ तलि घास ॥4॥

रोड़ा ह्वै रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।
 ऐसा जे जन ह्वै रहै, ताहि मिलै भगवान ॥5॥

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार – कबीर 

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
 साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये ।

 हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं ।
 अंतरयामी एक तुम आतम के आधार ।

 जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार ॥
 गुरु बिन कैसे लागे पार ॥

 मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार ।
 तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार ।

 अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़ ।
 जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज ॥

 गुरु बिन कैसे लागे पार ॥

भेष का अंग – कबीर 

माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई ।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥

 कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
 माला पहर्‌यां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥2॥

माला पहर्‌यां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
 माथौ मूँछ मुँडाइ करि, चल्या जगत के साथ ॥3॥

साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ ।
 भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंडाइ ॥4॥

केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार ।
 मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषय-बिकार ॥5॥

स्वांग पहरि सोरहा भया, खाया पीया खूंदि ।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूंदि ॥6॥

बैसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
 छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक ॥7॥

तन कों जोगी सब करै, मन कों बिरला कोइ ।
 सब सिधि सहजै पाइये, जे मन जोगी होइ ॥8॥

पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसार्‌यो भेष मैं, बूड़े काली धार ॥9॥

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
 एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ ॥10॥

मधि का अंग – कबीर 

 कबीर दुबिधा दूरि करि,एक अंग ह्वै लागि ।
 यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥1॥

दुखिया मूवा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झुरि ।
 सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि ॥2॥

काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
 मोट चून मैदा भया ,बैठि कबीरा जीम ॥3॥

उपदेश का अंग – कबीर 

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार।
 दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार॥1॥

 कबीर हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार।
 तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार॥2॥

ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
 अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ॥3॥

कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि।
 बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि॥4॥

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ।
 या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ॥5॥

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
 कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक॥6॥

करम गति टारै नाहिं टरी – कबीर 

करम गति टारै नाहिं टरी॥
 मुनि वसिस्थ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि।

 सीता हरन मरन दसरथ को, बन में बिपति परी॥1॥
कहँ वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहँ वह मिरग चरी।

 कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि॥2॥
पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी।

 कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही॥3॥
भ्रम-बिधोंसवा का अंग -कबीर 

जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम ।
 साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम ॥1॥

जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया, यौं जग चल्या निरास ॥2॥

तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ ।
 कबीर मूल निकंदिया, कौंण हलाहल खाइ ॥3॥

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
 दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि ॥4॥

 कबीर दुनिया देहुरै, सीस नवांवण जाइ ।
 हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौं ल्यौ लाइ ॥5॥

काहे री नलिनी तू कुमिलानी। – कबीर

काहे री नलिनी तू कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥

कहे कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान।
मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै-कबीर

मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै।
हीरा पायो गाँठ गँठियायो, बार-बार वाको क्यों खोलै।

हलकी थी तब चढी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोलै।
सुरत कलाली भई मतवाली, मधवा पी गई बिन तोले।

हंसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोलै।
तेरा साहब है घर माँहीं बाहर नैना क्यों खोलै।

कहै कबीर सुनो भई साधो, साहब मिल गए तिल ओलै॥

रहना नहिं देस बिराना – कबीर

रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।

यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥

कस्तूरी कुँडल बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ.- कबीर

कस्तूरी कुँडल बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ.
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ..

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय.
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ..

माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर.
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर..

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर.
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ..

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद..

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर.
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर..

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय.
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय..

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार.
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार..

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं.
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं..

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ.
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ..

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय.
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय..

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि.
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि..

ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय.
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय..

लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी.
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी..

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय.
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय..

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं.
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं.

हमन है इश्क मस्ताना – कबीर

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय-कबीर
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।

हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
काल्‍ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्‍ब।

पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्‍ब।
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत।

अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ग्‍यान।

मोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्‍यान।।
सोना, सज्‍जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार।

दुर्जन कुंभ-कुम्‍हार के, एकै धका दरार।।
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।

ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ मुल्‍ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाए।।
मोको कहां ढूढें तू बंदे मैं तो तेरे पास मे ।

ना मैं बकरी ना मैं भेडी ना मैं छुरी गंडास मे ।
नही खाल में नही पूंछ में ना हड्डी ना मांस मे ॥

ना मै देवल ना मै मसजिद ना काबे कैलाश मे ।
ना तो कोनी क्रिया-कर्म मे नही जोग-बैराग मे ॥

खोजी होय तुरंतै मिलिहौं पल भर की तलास मे
मै तो रहौं सहर के बाहर मेरी पुरी मवास मे

कहै कबीर सुनो भाई साधो सब सांसो की सांस मे ॥

तेरा मेरा मनुवां – कबीर

तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे ।
मै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।

मै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे ।

मै कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ॥
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा न मानत कोई रे ।

तू तो रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥
सतगुरू धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥
बीत गये दिन भजन बिना रे-कबीर

बीत गये दिन भजन बिना रे ।
भजन बिना रे, भजन बिना रे ॥

बाल अवस्था खेल गवांयो ।
जब यौवन तब मान घना रे ॥

लाहे कारण मूल गवाँयो ।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे ॥

कहत कबीर सुनो भई साधो ।
पार उतर गये संत जना रे ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई – कबीर

राम बिनु तन को ताप न जाई ।
जल में अगन रही अधिकाई ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना ।

जल में रहहि जलहि बिनु जीना ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा ।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ॥

राम बिनु तन को ताप न जाई ॥
तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला ।

कहै कबीर राम रमूं अकेला ॥
राम बिनु तन को ताप न जाई ॥

भजो रे भैया राम गोविंद हरी – कबीर

भजो रे भैया राम गोविंद हरी ।
राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी ॥

जप तप साधन नहिं कछु लागत, खरचत नहिं गठरी ॥
संतत संपत सुख के कारन, जासे भूल परी ॥

कहत कबीर राम नहीं जा मुख, ता मुख धूल भरी ॥

झीनी झीनी बीनी चदरिया – कबीर

झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,

सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,

पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँ को सियत मास दस लागे,

ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,

ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥

केहि समुझावौ सब जग अन्धा – कबीर

केहि समुझावौ सब जग अन्धा ॥
इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,

सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।
पानी घोड पवन असवरवा,

ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥
गहिरी नदी अगम बहै धरवा,

खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।
घर की वस्तु नजर नहि आवत,

दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥
लागी आगि सबै बन जरिगा,

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,

जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥

तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के – कबीर

तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥

सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे ।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे ।

माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे ।
गया ना मन का फेर रे ।

हाथ का मनका छाँड़ि दे मन का मनका फेर ॥
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे ।

दुख में करता याद रे ।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद ॥

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में – कबीर

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
जो सुख पाऊँ राम भजन में

सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

भला बुरा सब का सुनलीजै
कर गुजरान गरीबी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
आखिर यह तन छार मिलेगा

कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥
कहत कबीर सुनो भयी साधो

साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

रे दिल गाफिल गफलत मत कर – कबीर

रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,

प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,

सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,

टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,

चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

घूँघट का पट खोल रे – कबीर

घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट-घट मे वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥

धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल मे दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।

जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो – कबीर

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।
चंदन काठ के बनल खटोला

ता पर दुलहिन सूतल हो।
उठो सखी री माँग संवारो

दुलहा मो से रूठल हो।
आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा

नैनन अंसुवा टूटल हो
चार जाने मिल खाट उठाइन

चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो
कहत कबीर सुनो भाई साधो

जग से नाता छूटल हो

मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया – कबीर

मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया।
पांच तत की बनी चुनरिया

सोरह सौ बैद लाग किया।
यह चुनरी मेरे मैके ते आयी

ससुरे में मनवा खोय दिया।
मल मल धोये दाग न छूटे

ग्यान का साबुन लाये पिया।
कहत कबीर दाग तब छुटि है

जब साहब अपनाय लिया।

माया महा ठगनी – कबीर

माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले

बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी

शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं

तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी

राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा वे बैठी

काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगतिन वे बैठी

बृह्मा के बृह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो

यह सब अकथ कहानी।।

सुपने में सांइ मिले – कबीर

सुपने में सांइ मिले
सोवत लिया लगाए

आंख न खोलूं डरपता
मत सपना है जाए

सांइ मेरा बहुत गुण
लिखे जो हृदय माहिं

पियूं न पाणी डरपता
मत वे धोय जाहिं

नैना भीतर आव तू
नैन झांप तोहे लेउं

न मैं देखूं और को
न तेही देखण देउं

नैना अंतर आव तू
ज्यौ हौं नैन झंपेउं

ना हौं देखूं और कूँ

ना तुम देखण देउं
कबीर रेख सिंदूर की

काजर दिया न जाइ

नैनू रमैया रमि रह्या
दूजा कहॉ समाइ

मन परतीत न प्रेम रस
ना इत तन में ढंग

क्या जानै उस पीवसू
कैसे रहसी रंग

अंखियां तो छाई परी
पंथ निहारि निहारि

जीहड़ियां छाला परया
नाम पुकारि पुकारि

बिरह कमन्डल कर लिये

बैरागी दो नैन
मांगे दरस मधुकरी

छकै रहै दिन रैन
सब रंग तांति रबाब तन

बिरह बजावै नित
और न कोइ सुनि सकै

कै सांई के चित

साधो ये मुरदों का गांव – कबीर

साधो ये मुरदों का गांव
पीर मरे पैगम्बर मरिहैं

मरि हैं जिन्दा जोगी
राजा मरिहैं परजा मरिहै

मरिहैं बैद और रोगी
चंदा मरिहै सूरज मरिहै

मरिहैं धरणि आकासा
चौदां भुवन के चौधरी मरिहैं

इन्हूं की का आसा
नौहूं मरिहैं दसहूं मरिहैं

मरि हैं सहज अठ्ठासी
तैंतीस कोट देवता मरि हैं

बड़ी काल की बाजी
नाम अनाम अनंत रहत है

दूजा तत्व न होइ
कहत कबीर सुनो भाई साधो

भटक मरो ना कोई

मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा – कबीर

मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा ।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।

कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।
जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।

मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।

निरंजन धन तुम्हरो दरबार – कबीर

निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहाँ न तनिक न्याय विचार ।।

रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर-धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।

वेश्या ओढे़ खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।

पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परम‌ ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।

साँच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।

निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।

कुछ प्रसिद्ध कविताएँ :-

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