Atal Bihari Vajpayee Poems in Hindi | अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएँ

अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएँ

Atal Bihari Vajpayee Poems in Hindi : यहाँ इस लेख में आपको में आपको अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएँ उपलब्ध कराएँगे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री एक मझे हुए राजनेता के साथ साथ एक वक्ता भी रहे है इसके साथ साथ एक कवि भी रहे है उनकी वीररस की कवितायेँ हो या या भाउक कविताए हर किसी को पसंद आती है।

आज यहाँ हम भारत में तीन बार प्रधानमंत्री रहे है जिसमे पहले 16 मई से 1 जून 1996 तक, तथा फिर 1998 मे और फिर19 मार्च 1999 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएँ लिखे है जो आपको काफी पसंद आयेंगे।

Table of Contents

आओ फिर से दिया जलाएँ – अटल बिहारी वाजपेयी (1)

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा

 सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

 हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

 वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।

 आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

 अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

क़दम मिला कर चलना होगा – अटल बिहारी वाजपेयी (2)

बाधाएँ आती हैं आएँ
 घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।

 क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।

 क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।

 क़दम मिलाकर चलना होगा।

पुनः चमकेगा दिनकर – अटल बिहारी वाजपेयी (3)

आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;

सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;

मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;

एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;

कह क़ैदी कबिराय
 न अपना छोटा जी कर;

चीर निशा का वक्ष
 पुनः चमकेगा दिनकर।

ऊँचाई – अटल बिहारी वाजपेयी (4)

ऊँचे पहाड़ पर, 
पेड़ नहीं लगते, 

पौधे नहीं उगते, 
न घास ही जमती है। 

जमती है सिर्फ बर्फ, 
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और, 

मौत की तरह ठंडी होती है। 
खेलती, खिलखिलाती नदी, 

जिसका रूप धारण कर, 
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है। 

 ऐसी ऊँचाई, 
जिसका परस 

 पानी को पत्थर कर दे, 
ऐसी ऊँचाई 

 जिसका दरस हीन भाव भर दे, 
अभिनंदन की अधिकारी है, 

आरोहियों के लिये आमंत्रण है, 
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, 

किन्तु कोई गौरैया, 
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, 

ना कोई थका-मांदा बटोही, 
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है। 

 सच्चाई यह है कि 
 केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, 

सबसे अलग-थलग, 
परिवेश से पृथक, 

अपनों से कटा-बँटा, 
शून्य में अकेला खड़ा होना, 

पहाड़ की महानता नहीं, 
मजबूरी है। 

 ऊँचाई और गहराई में 
 आकाश-पाताल की दूरी है। 

जो जितना ऊँचा, 
उतना एकाकी होता है, 

हर भार को स्वयं ढोता है, 
चेहरे पर मुस्कानें चिपका, 

मन ही मन रोता है। 
 ज़रूरी यह है कि 

 ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, 
जिससे मनुष्य, 

ठूँठ सा खड़ा न रहे, 
औरों से घुले-मिले, 

किसी को साथ ले, 
किसी के संग चले। 

भीड़ में खो जाना, 
यादों में डूब जाना, 

स्वयं को भूल जाना, 
अस्तित्व को अर्थ, 

जीवन को सुगंध देता है। 
 धरती को बौनों की नहीं, 

ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। 
 इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, 

नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें, 
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं, 

कि पाँव तले दूब ही न जमे, 
कोई काँटा न चुभे, 

कोई कली न खिले। 
 न वसंत हो, न पतझड़, 

हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, 
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। 

मेरे प्रभु! 
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, 

ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, 
इतनी रुखाई कभी मत देना।

झुक नहीं सकते – अटल बिहारी वाजपेयी (5)

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
 सत्य का संघर्ष सत्ता से

 न्याय लड़ता निरंकुशता से
 अंधेरे ने दी चुनौती है

 किरण अंतिम अस्त होती है
 दीप निष्ठा का लिये निष्कंप

 वज्र टूटे या उठे भूकंप
 यह बराबर का नहीं है युद्ध

 हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
 हर तरह के शस्त्र से है सज्ज

 और पशुबल हो उठा निर्लज्ज
 किन्तु फिर भी जूझने का प्रण

 अंगद ने बढ़ाया चरण
 प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार

 समर्पण की माँग अस्वीकार
 दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते

 टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

अपने ही मन से कुछ बोलें – अटल बिहारी वाजपेयी (6)

क्या खोया, क्या पाया जग में
 मिलते और बिछुड़ते मग में

 मुझे किसी से नहीं शिकायत
 यद्यपि छला गया पग-पग में

 एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

 जीवन एक अनन्त कहानी
 पर तन की अपनी सीमाएँ

 यद्यपि सौ शरदों की वाणी
 इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा

 आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
 कौन जानता किधर सवेरा

 अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

एक बरस बीत गया – अटल बिहारी वाजपेयी (7)

एक बरस बीत गया 
झुलसाता जेठ मास 

 शरद चांदनी उदास 
 सिसकी भरते सावन का 

 अंतर्घट रीत गया 
 एक बरस बीत गया 

सीकचों मे सिमटा जग 
 किंतु विकल प्राण विहग 

 धरती से अम्बर तक 
 गूंज मुक्ति गीत गया 

 एक बरस बीत गया 
पथ निहारते नयन 

 गिनते दिन पल छिन 
 लौट कभी आएगा 

 मन का जो मीत गया 
 एक बरस बीत गया

मैं न चुप हूँ न गाता हूँ – अटल बिहारी वाजपेयी (8)

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 
 सवेरा है मगर पूरब दिशा में 

 घिर रहे बादल 
 रूई से धुंधलके में 

 मील के पत्थर पड़े घायल 
 ठिठके पाँव 

 ओझल गाँव 
 जड़ता है न गतिमयता 

 स्वयं को दूसरों की दृष्टि से 
मैं देख पाता हूं 

 न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 
 समय की सदर साँसों ने 

 चिनारों को झुलस डाला, 
मगर हिमपात को देती 

 चुनौती एक दुर्ममाला, 
बिखरे नीड़, 

विहँसे चीड़, 
आँसू हैं न मुस्कानें, 

हिमानी झील के तट पर 
अकेला गुनगुनाता हूँ। 

 न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

मौत से ठन गई – अटल बिहारी वाजपेयी (9)

ठन गई! 
मौत से ठन गई! 

जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। 

 मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। 

 मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। 

 मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 

 बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 

 प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 

 हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 

 आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। 

 पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 

 मौत से ठन गई।

जीवन की ढलने लगी साँझ – अटल बिहारी वाजपेयी (10)

जीवन की ढलने लगी सांझ
 उमर घट गई

 डगर कट गई
 जीवन की ढलने लगी सांझ।

 बदले हैं अर्थ
 शब्द हुए व्यर्थ

 शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
 सपनों में मीत

 बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।

 जीवन की ढलने लगी सांझ।

अंतरद्वंद्व – अटल बिहारी वाजपेयी (11)

क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर?
शव का अर्चन,

शिव का वर्जन,
कहूँ विसंगति या रूपांतर?

वैभव दूना,
अंतर सूना,

कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर?

क्षमा याचना – अटल बिहारी वाजपेयी (12)

क्षमा करो बापू! तुम हमको,
बचन भंग के हम अपराधी,

राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी।

 जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

 चिताभस्म की चिंगारी से,
अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

दूध में दरार पड़ गई – अटल बिहारी वाजपेयी (13)

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।

 बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।

 दूध में दरार पड़ गई।
 खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

 वसंत से बहार झड़ गई
 दूध में दरार पड़ गई।

 अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
 बात बनाएँ, बिगड़ गई।

 दूध में दरार पड़ गई।

कौरव कौन, कौन पांडव – अटल बिहारी वाजपेयी (14)

कौरव कौन
 कौन पांडव,

टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि

 का फैला
 कूटजाल है|

धर्मराज ने छोड़ी नहीं
 जुए की लत है|

हर पंचायत में
 पांचाली

 अपमानित है|
बिना कृष्ण के

 आज
 महाभारत होना है,

कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|

हरी हरी दूब पर – अटल बिहारी वाजपेयी (15)

हरी हरी दूब पर 
 ओस की बूंदे 

 अभी थी, 
अभी नहीं हैं| 

ऐसी खुशियाँ 
 जो हमेशा हमारा साथ दें 

 कभी नहीं थी, 
कहीं नहीं हैं| 

क्काँयर की कोख से 
 फूटा बाल सूर्य, 

जब पूरब की गोद में 
 पाँव फैलाने लगा, 

तो मेरी बगीची का 
 पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा, 

मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ 
 या उसके ताप से भाप बनी, 

ओस की बुँदों को ढूंढूँ? 
सूर्य एक सत्य है 

 जिसे झुठलाया नहीं जा सकता 
 मगर ओस भी तो एक सच्चाई है 

 यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है 
 क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ? 

कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ? 
सूर्य तो फिर भी उगेगा, 

धूप तो फिर भी खिलेगी, 
लेकिन मेरी बगीची की 

 हरी-हरी दूब पर, 
ओस की बूंद 

 हर मौसम में नहीं मिलेगी|

दो अनुभूतियाँ – अटल बिहारी वाजपेयी (16)

पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ

 बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं 

 टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
 गीत नहीं गाता हूँ

 लगी कुछ ऐसी नज़र
 बिखरा शीशे सा शहर

 अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
 गीत नहीं गाता हूँ

 पीठ मे छुरी सा चांद
 राहू गया रेखा फांद

 मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
 गीत नहीं गाता हूँ

 दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ

 टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
 पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर

 झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात

 प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
 गीत नया गाता हूँ

 टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
 अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी

 हार नहीं मानूँगा,
रार नहीं ठानूँगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
 गीत नया गाता हूँ

हिरोशिमा की पीड़ा – अटल बिहारी वाजपेयी (17)

किसी रात को 
 मेरी नींद चानक उचट जाती है 

 आँख खुल जाती है 
 मैं सोचने लगता हूँ कि 

 जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का 
आविष्कार किया था 

 वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण 
 नरसंहार के समाचार सुनकर 

 रात को कैसे सोए होंगे? 
क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही 

 ये अनुभूति नहीं हुई कि 
 उनके हाथों जो कुछ हुआ 

 अच्छा नहीं हुआ! 
यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा 

 किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें 
 कभी माफ़ नहीं करेगा!

मनाली मत जइयो – अटल बिहारी वाजपेयी (18)

मनाली मत जइयो, गोरी 
 राजा के राज में। 

 जइयो तो जइयो, 
उड़िके मत जइयो, 

अधर में लटकीहौ, 
वायुदूत के जहाज़ में। 

 जइयो तो जइयो, 
सन्देसा न पइयो, 

टेलिफोन बिगड़े हैं, 
मिर्धा महाराज में। 

 जइयो तो जइयो, 
मशाल ले के जइयो, 

बिजुरी भइ बैरिन 
 अंधेरिया रात में। 

 जइयो तो जइयो, 
त्रिशूल बांध जइयो, 

मिलेंगे ख़ालिस्तानी, 
राजीव के राज में। 

 मनाली तो जइहो। 
 सुरग सुख पइहों। 

 दुख नीको लागे, मोहे 
राजा के राज में।

राह कौन सी जाऊँ मैं? – अटल बिहारी वाजपेयी (19)

चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर

चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया

तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में

क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?

जो बरसों तक सड़े जेल में – अटल बिहारी वाजपेयी (20)

जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।
जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।

याद करें काला पानी को,
अंग्रेजों की मनमानी को,

कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर से बलिदानी को।

याद करें बहरे शासन को,
बम से थर्राते आसन को,

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू
के आत्मोत्सर्ग पावन को।

अन्यायी से लड़े,
दया की मत फरियाद करें।

उनकी याद करें।
बलिदानों की बेला आई,

लोकतंत्र दे रहा दुहाई,
स्वाभिमान से वही जियेगा

जिससे कीमत गई चुकाई
मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,

युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,
कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी

मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।
अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में

क्यों अवसाद करें?
उनकी याद करें।

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय – अटल बिहारी वाजपेयी (21)

मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार क्षार
डमरू की वह प्रलयध्वनि हूं जिसमे नचता भीषण संहार

रणचंडी की अतृप्त प्यास मै दुर्गा का उन्मत्त हास
मै यम की प्रलयंकर पुकार जलते मरघट का धुँवाधार

फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मै
यदि धधक उठे जल थल अंबर जड चेतन तो कैसा विस्मय

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै आज पुरुष निर्भयता का वरदान लिये आया भूपर

पय पीकर सब मरते आए मै अमर हुवा लो विष पीकर
अधरोंकी प्यास बुझाई है मैने पीकर वह आग प्रखर

हो जाती दुनिया भस्मसात जिसको पल भर मे ही छूकर
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन

मै नर नारायण नीलकण्ठ बन गया न इसमे कुछ संशय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

मै अखिल विश्व का गुरु महान देता विद्या का अमर दान
मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग मैने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान

मेरे वेदों का ज्ञान अमर मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार क्या कभी सामने सकठका सेहर

मेरा स्वर्णभ मे गेहर गेहेर सागर के जल मे चेहेर चेहेर
इस कोने से उस कोने तक कर सकता जगती सौरभ मै

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मै तेजःपुन्ज तम लीन जगत मे फैलाया मैने प्रकाश

जगती का रच करके विनाश कब चाहा है निज का विकास
शरणागत की रक्षा की है मैने अपना जीवन देकर

विश्वास नही यदि आता तो साक्षी है इतिहास अमर
यदि आज देहलि के खण्डहर सदियोंकी निद्रा से जगकर

गुंजार उठे उनके स्वर से हिन्दु की जय तो क्या विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

दुनिया के वीराने पथ पर जब जब नर ने खाई ठोकर
दो आँसू शेष बचा पाया जब जब मानव सब कुछ खोकर

मै आया तभि द्रवित होकर मै आया ज्ञान दीप लेकर
भूला भटका मानव पथ पर चल निकला सोते से जगकर

पथ के आवर्तोंसे थककर जो बैठ गया आधे पथ पर
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढनिश्चय

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
मैने छाती का लहु पिला पाले विदेश के सुजित लाल

मुझको मानव मे भेद नही मेरा अन्तःस्थल वर विशाल
जग से ठुकराए लोगोंको लो मेरे घर का खुला द्वार

अपना सब कुछ हूं लुटा चुका पर अक्षय है धनागार
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयोंका वह राज मुकुट

यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरिट तो क्या विस्मय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

मै वीरपुत्र मेरि जननी के जगती मे जौहर अपार
अकबर के पुत्रोंसे पूछो क्या याद उन्हे मीना बझार

क्या याद उन्हे चित्तोड दुर्ग मे जलनेवाली आग प्रखर
जब हाय सहस्त्रो माताए तिल तिल कर जल कर हो गई अमर

वह बुझनेवाली आग नही रग रग मे उसे समाए हूं
यदि कभि अचानक फूट पडे विप्लव लेकर तो क्या विस्मय

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम

मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम
गोपाल राम के नामोंपर कब मैने अत्याचार किया

कब दुनिया को हिन्दु करने घर घर मे नरसंहार किया
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी

भूभाग नही शत शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज
मेरा इसका संबन्ध अमर मै व्यक्ति और यह है समाज

इससे मैने पाया तन मन इससे मैने पाया जीवन
मेरा तो बस कर्तव्य यही कर दू सब कुछ इसके अर्पण

मै तो समाज की थाति हूं मै तो समाज का हूं सेवक
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय

हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥

दुनिया का इतिहास पूछता – अटल बिहारी वाजपेयी (22)

दुनिया का इतिहास पूछता,
रोम कहाँ, यूनान कहाँ?

घर-घर में शुभ अग्नि जलाता।
वह उन्नत ईरान कहाँ है?

दीप बुझे पश्चिमी गगन के,
व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,

किन्तु चीर कर तम की छाती,
चमका हिन्दुस्तान हमारा।

शत-शत आघातों को सहकर,
जीवित हिन्दुस्तान हमारा।

जग के मस्तक पर रोली सा,
शोभित हिन्दुस्तान हमारा।

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं – अटल बिहारी वाजपेयी (23)

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।

पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।

यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।

इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।

हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।

पड़ोसी से – अटल बिहारी वाजपेयी (24)

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता।

त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।

इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिनगारी का खेल बुरा होता है ।

औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।

ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।

अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।

दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।

धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।

हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।

जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,

स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।

अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा ।

पहचान – अटल बिहारी वाजपेयी (25)

आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।

पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती है?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती

इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?

पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?

फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?

हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,

तो उसका क्या अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?

नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती।

कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।

किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।

इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े,
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।

मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।

इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न माने,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।

आदमी जहां है, वही खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?

जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।

आदमी को चाहिए कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।

किंतु कितना भी ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।

एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान ने आकाश-पाताल को जीता था।

धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभियान से न तने।

आदमी की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की संपदा भी रोती है।

मन का संतोष – अटल बिहारी वाजपेयी (26)

पृथ्वी पर
मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है,
जो भीड़ में अकेला, और,
अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है ।

मनुष्य को झुण्ड में रहना पसंद है ।
घर-परिवार से प्रारम्भ कर,
वह बस्तियाँ बसाता है ।
गली-ग्राम-पुर-नगर सजाता है ।

सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में,
संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ,
प्रकृति पर विजय,
मृत्यु को मुट्ठी में करना चाहता है ।

अपनी रक्षा के लिए
औरों के विनाश के सामान जुटाता है ।
आकाश को अभिशप्त,
धरती को निर्वसन,
वायु को विषाक्त,
जल को दूषित करने में संकोच नहीं करता ।

किंतु, यह सब कुछ करने के बाद
जब वह एकान्त में बैठकर विचार करता है,
वह एकान्त, फिर घर का कोना हो,
या कोलाहल से भरा बाजार,
या प्रकाश की गति से तेज उड़ता जहाज,
या कोई वैज्ञानिक प्रयोगशाला,
था मंदिर
या मरघट ।

जब वह आत्मालोचन करता है,
मन की परतें खोलता है,
स्वयं से बोलता है,
हानि-लाभ का लेखा-जोखा नहीं,
क्या खोया, क्या पाया का हिसाब भी नहीं,
जब वह पूरी जिंदगी को ही तौलता है,
अपनी कसौटी पर स्वयं को ही कसता है,
निर्ममता से निरखता, परखता है,
तब वह अपने मन से क्या कहता है !
इसी का महत्त्व है, यही उसका सत्य है ।

अंतिम यात्रा के अवसर पर,
विदा की वेला में,
जब सबका साथ छूटने लगता है,
शरीर भी साथ नहीं देता,
तब आत्मग्लानि से मुक्त
यदि कोई हाथ उठाकर यह कह सकता है
कि उसने जीवन में जो कुछ किया,
सही समझकर किया,
किसी को जानबूझकर चोट पहुँचाने के लिए नहीं,
सहज कर्म समझकर किया,
तो उसका अस्तित्व सार्थक है,
उसका जीवन सफ़ल है ।

उसी के लिए यह कहावत बनी है,
मन चंगा तो कठौती में गंगाजल है ।

दूर कहीं कोई रोता है – अटल बिहारी वाजपेयी (27)

दूर कहीं कोई रोता है।

तन पर पैहरा भटक रहा मन,
साथी है केवल सूनापन,
बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का,
क्रंदन सदा करूण होता है ।

जन्म दिवस पर हम इठलाते,
क्यों ना मरण त्यौहार मनाते,
अन्तिम यात्रा के अवसर पर,
आँसू का अशकुन होता है ।

अन्तर रोयें आँख ना रोयें,
धुल जायेंगे स्वपन संजाये,
छलना भरे विश्व में केवल,
सपना ही सच होता है ।

इस जीवन से मृत्यु भली है,
आतंकित जब गली गली है,
मैं भी रोता आसपास जब,
कोई कहीं नहीं होता है ।

जीवन बीत चला – अटल बिहारी वाजपेयी (28)

जीवन बीत चला
कल कल करते आज

हाथ से निकले सारे
भूत भविष्य की चिंता में
वर्तमान की बाज़ी हारे
पहरा कोई काम न आया
रसघट रीत चला
जीवन बीत चला

हानि लाभ के पलड़ों में
तुलता जीवन व्यापार हो गया
मोल लगा बिकने वाले का
बिना बिका बेकार हो गया
मुझे हाट में छोड़ अकेला
एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला

मैं सोचने लगता हूँ – अटल बिहारी वाजपेयी (29)

तेज रफ्तार से दौड़ती बसें,
बसों के पीछे भागते लोग,
बच्चे सम्हालती औरतें,

सड़कों पर इतनी धूल उड़ती है
कि मुझे कुछ दिखाई नहीं देता ।
मैं सोचने लगता हूँ ।

पुरखे सोचने के लिए आँखें बन्द करते थे,
मै आँखें बन्द होने पर सोचता हूँ ।

बसें ठिकानों पर क्यों नहीं ठहरतीं ?
लोग लाइनों में क्यों नहीं लगते ?
आखिर यह भागदौड़ कब तक चलेगी ?

देश की राजधानी में,
संसद के सामने,
धूल कब तक उड़ेगी ?

मेरी आँखें बन्द हैं,
मुझे कुछ दिखाई नहीं देता ।
मैं सोचने लगता हूँ ।

नए मील का पत्थर – अटल बिहारी वाजपेयी (30)

नए मील का पत्थर पार हुआ।

कितने पत्थर शेष न कोई जानता?
अन्तिमनए मील का पत्थर पार हुआ।
कितने पत्थर शेष न कोई जानता?
अन्तिम कौन पडाव नही पहचानता?
अक्षय सूरज , अखण्ड धरती,
केवल काया , जीती मरती,
इसलिये उम्र का बढना भी त्यौहार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ।

बचपन याद बहुत आता है,
यौवन रसघट भर लाता है,
बदला मौसम, ढलती छाया,
रिसती गागर , लुटती माया,
सब कुछ दांव लगाकर घाटे का व्यापार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ।

कुछ प्रसिद्ध कविताएँ :-

Leave a Comment